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मुस्लिम विधि / Muslim Law

मुस्लिम विधि में हिबा का क्या मतलब है, क्या हिबा रद्द किया जा सकता है ?

July 1, 2021 by Mohd Mohsin Leave a Comment

परिचय

हिबा का शाब्दिक अर्थ है – “ऐसी वस्तु का दान जिससे दान प्राप्त करने वाला लाभ उठा सके I मुस्लिम विधि के अनुसार एक मुसलमान अपने जीवन में अपनी संपत्ति को क़ानूनी ढंग से दान द्वारा अंतरित कर सकता है या वह अपनी संपत्ति को वसीयत द्वारा, जो उसकी मौत के के बाद प्रभावी होगी, अंतरित कर सकता है I अपने जीवनकाल में वह अपनी संपत्ति का किसी भी सीमा तक अंतरण कर सकता है जबकि वसीयत द्वारा वह पूरी संपत्ति का सिर्फ ⅓ भाग ही दान कर सकता है I

इस प्रकार कोई मुस्लिम 2 तरह से दान कर सकता है –

  • जीवित दशा में दान
  • वसीयत द्वारा दान

हिबा की परिभाषा

“एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को तुरंत और बिना किसी बदले के और बिना किसी शर्त के किया गया संपत्ति का अंतरण, जिसे दूसरा स्वीकार करता है या उसकी तरफ से स्वीकार किया जाता है I”

हिबा की विशेषताएँ

  • हिबा एक ऐसा कार्य है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपनी संपत्ति के स्वामित्व को प्रदान करता है I
  • यह संपत्ति का बिना शर्त अंतरण है I
  • हिबा में संपत्ति अंतरणकर्ता द्वारा अंतरिती को तुरंत अंतरित होती है I हिबा तुरंत प्रभावी हो जाता है I
  • हिबा की संपत्ति को हिबा के समय अस्तित्व में होना ज़रूरी है I
  • हिबा बिना किसी प्रतिफल के संपत्ति का अंतरण है I

हिबा के आवश्यक तत्व

हिबा के पक्षकार

हिबा के लिए 2 पक्षकार होना ज़रूरी हैं –

दान-दाता (Donor)

दान-दाता को व्यस्क मतलब 18 वर्ष का होना ज़रूरी है I 15 वर्ष की आयु केवल विवाह, मेहर और तलाक के लिए ही मानी जाती है I अन्य मामलों में भारतीय वयस्कता अधिनियम के अनुसार कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की उम्र पूरी होने पर ही व्यस्क माना जाता है I दान-दाता को स्वस्थ्य मस्तिष्क का होना चाहिए और उसकी सहमती स्वतंत्र होनी चाहिए और वह अंतरण की विषय-वस्तु का स्वामी होना चाहिए I

कुछ विशेष उदाहरण –

  • विवाहित स्त्री द्वारा दिया गया दान मान्य होता है I
  • पर्दानशीन द्वारा दिया गया दान मान्य होता है अगर वह संव्यवहार की प्रकृति समझती थी और उस पर कोई अनुचित दबाव नहीं था I लेकिन यह साबित करने का भार दानग्रहीता पर होता है I
  • दिवालिया व्यक्ति भी हिबा कर सकता है बशर्ते कि उसका आशय सदभावना से हिबा करने का हो I
दानग्रहीता (Donee)

संपत्ति का स्वामी होने योग्य कोई भी व्यक्ति जिसमें विधिक व्यक्ति भी शामिल है, दानग्राहीता हो सकता है I लिंग, आयु और धर्म इसमें बाधक नहीं है I हिबा किन-किन व्यक्तियों को किया जा सकता है और किन को नहीं – जैसे

  • अजन्मे व्यक्ति को किया गया हिबा अमान्य होता है लेकिन दान की तारीख से 6 महीने के अन्दर जन्म लेने वाला व्यक्ति अस्तित्व में समझा जाता है और वह सक्षम दानग्राहीता होता है I
  • मस्जिद और दूसरी संस्थाएं विधिक व्यक्ति मानी जाने के कारण सक्षम दानग्राहीता होती हैं I
  • किसी गैर मुस्लिम को किया गया हिबा वैध होता है I
  • दान दाता से वैश्वासिक सम्बन्ध रखने वाले दानग्राहीता को किया गया हिबा तभी मान्य होता है जब यह साबित कर दिया जाए कि कि वह अनुचित प्रभाव का परिणाम नहीं है I
  • अवयस्क और अस्वस्थ्यचित्त व्यक्ति को किया गया हिबा वैध है लेकिन ऐसा हिबा दानग्राहीता के संरक्षक द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए I जैसे –
  1. पिता  2- पिता का निष्पादक  3- पिता का पिता   4- पिता के पिता का निष्पादक

 

हिबा की विषय-वस्तु

सामान्य नियम यह है कि उस वस्तु का हिबा हो सकता है –

  • जिस पर स्वामित्व या संपत्ति के अधिकार का प्रयोग किया जा सके,
  • जिस पर कब्ज़ा प्राप्त किया जा सके,
  • जो माल के अर्थ में आती हो,
  • जिसका अस्तित्व वस्तु के रूप या निष्पादन अधिकार के रूप में हो I

मुस्लिम विधि पैतृक या स्वंय अर्जित की गई संपत्ति, चल या अचल संपत्ति में कोई अंतर नहीं करती है I मुस्लिम विधि में संपत्ति को माल कहा जाता है I ऐसी कोई भी वस्तु जिसका अधिभोग किया जा सकता है या जिसको कब्ज़े में रखा जा सकता है, हिबा की विषय-वस्तु बन सकती है I हिबा करने के लिए संपत्ति में निम्नलिखित अर्हताएं होनी चाहिए –

  • संपत्ति का अस्तित्व में होना ज़रूरी है I भविष्य में उत्पन्न होने वाली किसी वस्तु का हिबा शून्य होता है I
  • दान-दाता को उस पर काबिज़ होना ज़रूरी है I वरना हिबा शून्य होगा I

हिबा की विषय-वस्तु की सीमा और तत्व

मुस्लिम विधि में संपत्ति के दो तत्वों के बीच अंतर किया गया है I

  • काय (Corpus)
  • फलोपभोग (Usufruct)

काय का मतलब संपत्ति पर स्वामित्व के ऐसे अधिकार से है, जो उत्तराधिकार योग्य हो और उस पर समय की कोई सीमा न हो I

फलोपभोग का मतलब संपत्ति के केवल उपभोग या उपयोग का अधिकार है और यह अधिकार उत्तराधिकार योग्य नहीं होता है I समय की दृष्टी में यह अधिकार सीमित होता है I

संपत्ति में ‘काय’ का दान ‘हिबा’ कहलाता है और ‘फलोपभोग’ का दान ‘अरीया’ कहलाता है I

मुस्लिम विधि में हिबा के संव्यवहार में न्यायालय का सबसे पहला कर्त्तव्य यह देखना होगा कि वह काय का हिबा है या फलोपभोग का I अगर काय का हिबा है तो कोई ऐसी शर्त जो विषय-वस्तु को पूर्ण स्वामित्व से नीचे ले जाती हो, अस्वीकार कर दी जाएगी I एक वाद में कहा गया कि हिबा काय का ही होना चाहिए ऐसा हिबा जो दानग्राहीता को दान-दाता की मौत के बाद अधिकार प्रदान करे, अमान्य है I

विषय-वस्तु के प्रकार

  • मूर्त संपत्ति – ऐसी वस्तु जो देखी और छुई जा सके I
  • अमूर्त संपत्ति – जिसका कोई भौतिक अस्तित्व न हो, जैसे – किसी ऋण का भुगतान प्राप्त करने का अधिकार या बंधक-मोचन का अधिकार I

विभिन्न विषय-वस्तुएं

  • ऋण का भुगतान प्राप्त करने का अधिकार I
  • धन (माल)
  • बंधक-मोचन का अधिकार
  • मेहर
  • सरकारी प्रतिभूतियां
  • अधिकार जो पूर्ण स्वामित्व का न हो, जैसे – लगान वसूली का अधिकार I

हिबा की शर्तें

हिबा के लिए 3 शर्तों का पूरा करना ज़रूरी है –

दान-दाता द्वारा घोषणा

दान-दाता का हिबा करने का स्पष्ट और असंदिग्ध आशय होना ज़रूरी है I जब हिबा करने वाले की तरफ से आशय असंदिग्ध हो तो हिबा शून्य होगा I जैसे – ऋणदाताओं को प्रवंचित करने के आशय से किया गया हिबा ऋणदाताओं के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है I लेकिन उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार से वंचित करने लिए किया गया हिबा अवैध नहीं होता है I

हिबा की स्वीकृति

दानग्राहीता द्वारा या उसकी ओर से हिबा की स्वीकृति होना ज़रूरी है I लेकिन जहाँ किसी पिता या अन्य संरक्षक ने अपने अवयस्क पुत्र या किसी प्रतिपाल्य के पक्ष में हिबा किया गया है तो वहां स्वीकृति ज़रूरी नहीं है I अगर स्वीकृति शब्दों में न हो लेकिन पक्षकारों के आचरण से स्पष्ट हो तो हिबा मान्य होगा I जैसे – कोई यह कहे कि मैं यह तुम्हें दे रहा हूँ और दूसरा व्यक्ति बिना कोई शब्द कहे उस वस्तु को ले लेता है या उस पर कब्ज़ा पा लेता है तो यह मान्य स्वीकृति है I

कब्ज़े का परिदान

हिबा का मान्य होने के लिए तीसरी आवश्यक शर्त कब्ज़े का परिदान है I हिबा पर अन्य शर्तों का कोई प्रभाव नहीं होगा जब तक कि इस शर्त को पूरा न कर दिया जाए I कब्ज़े के परिदान की असली परीक्षा यह है कि संपत्ति से लाभ कौन उठाता है अगर दान-दाता लाभ उठाता है तो यह कब्ज़े का अंतरण नहीं हुआ और हिबा अपूर्ण है और अगर दानग्राहीता लाभ उठाता है तो यह कब्ज़े का परिदान हो गया और हिबा पूर्ण है I

क्या मौखिक हिबा किया जा सकता है ?

मौखिक हिबा उतना ही प्रभावी होता है जितना कि लिखित बशर्ते कि वह मुस्लिम विधि के अंतर्गत मान्य हिबा की शर्तों को पूरा करता हो I मुस्लिम विधि में अचल संपत्तियों का हिबा बिना लिखित और बिना रजिस्ट्रीकृत सिर्फ मौखिक ढंग से किया जा सकता है I यह ध्यान रखना चाहिए कि मौखिक हिबा को केवल संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के द्वारा ही मान्यता प्रदान की गयी है I कुछ स्थानीय अधिनियम हैं जिनके अंतर्गत हिबा की वैधता के लिए उसका पंजीयन आवश्यक है I

क़म्रुन्निसा बीबी बनाम हुसैनी बीबी के मामले में अचल संपत्ति का मौखिक हिबा, जिसके बाद कब्ज़ा अंतरित कर दिया गया था, मान्य समझा गया I

महबूब साहब बनाम सैयद इस्माइल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम विधि द्वारा किये गये हिबा का लिखित और पंजीकृत होना ज़रूरी हैं है I वैध हिबा के लिए घोषणा उसकी स्वीकृति और कब्ज़ा दिया जाना आवश्यक है I अगर यह 3 तत्व साबित हो जाते हैं तो हिबा वैध होगा I

वह कौन से हिबा होते हैं जिनमें कब्ज़ा दिया जाना ज़रूरी नहीं होता ?

1- पिता, माता या किसी संरक्षक द्वारा पागल या अवयस्क (पुत्र, पुत्री) को हिबा – हिबा के इस मामले में, जहाँ दान दाता और दान ग्राहीता उसी घर में रहते हों या अलग-अलग, जो हिबा किया जाना है, कब्ज़ा दिया जाना ज़रूरी नहीं है I सिर्फ हिबा करने का आशय सदभावना पूर्ण होना चाहिए I यहाँ संरक्षक का मतलब अवयस्क की संपत्ति का संरक्षक है यानी पिता, पिता का निष्पादक, पिता का पिता, उसका निष्पादक I

 

(a)- अपने अवयस्क लड़के को पिता या उसके निष्पादक द्वारा हिबा – इस अवस्था में कब्ज़ा दिया जाना ज़रूरी नहीं है क्यूंकि खुद पिता ही अपने लड़के के संरक्षक की हैसियत में कब्ज़ा प्राप्त करेगा I

(b)- पिता के पिता द्वारा अपने अवयस्क पौत्र को हिबा बशर्ते कि उसका पिता मर गया हो – इस अवस्था में भी कब्ज़ा दिया जाना ज़रूरी नहीं होता क्यूंकि पिता के न रहने पर अवयस्क की तरफ से उसके संरक्षक की हैसियत से  पिता का पिता ही कब्ज़ा प्राप्त करेगा I लेकिन अगर पिता जीवित है और संरक्षक के रूप में अपने अधिकारों और शक्तियों से वंचित नहीं किया गया है तो कब्ज़ा दिया जाना आवश्यक है वरना हिबा पूर्ण नहीं होगा I

 

2- जहाँ दानदाता और दानग्राहीता दोनों ही हिबा की विषय-वस्तु में रहते हों – हिबा के ऐसे मामलों में दान दाता को घर से निकल जाने की ज़रुरत नहीं होती बल्कि सिर्फ कब्ज़ा देने और हिबा की विषय-वस्तु से अपना अधिकार त्याग देने का आशय ही पर्याप्त होता है I

 

3- पति द्वारा अपनी पत्नी को या पत्नी द्वारा अपने पति को हिबा – हिबा के ऐसे मामलों में भी कब्ज़ा दिया जाना ज़रूरी नहीं है बशर्ते कि परिस्थितियों से यह अनुमानित किया जा सके कि हिबा का आशय वास्तविक और सदभावना पूर्ण था I यह तथ्य कि पति हिबा के बाद भी मकान में रहता चला आया और किराया वसूल करता रहा, हिबा को अमान्य नहीं बना देगा I

 

4- अमूर्त अधिकार – हिबा के ऐसे मामलों में जिनमे हिबा की विषय-वस्तु की प्रकृति के कारण कब्ज़ा नहीं दिया जा सकता है और ऐसे मामलों में जिनमे कब्ज़ा दिया जा सकता है, अंतर करना उचित है I जैसे – जहाँ भू खंड पट्टे पर उठे हों वहां वास्तविक कब्ज़ा नहीं दिया जा सकता I इसलिए भू खण्डों का ऐसा हिबा मान्य होता है I

 

5- जब उपहनिहिती या न्यासधारी या बंधक के रूप में संपत्ति दान ग्राहीता के कब्ज़े में हो – हिबा के ऐसे मामलों में जहाँ उपरोक्त कारण से संपत्ति दान ग्राहीता के कब्ज़े में हो तो कब्ज़ा दिए बिना ही सिर्फ घोषणा और स्वीकृति द्वारा हिबा पूर्ण किया जा सकता है I

 

6- कब्ज़े का आंशिक परिदान – जहाँ यह साक्ष्य हो कि हिबा की संपत्ति से कुछ हिस्से का कब्ज़ा दे दिया गया है तो विषय-वस्तु के शेष हिस्से का परिदान मान्य किया जा सकता है I

 

शून्य हिबा

अजन्मे व्यक्ति को हिबा

ऐसे व्यक्ति को हिबा, जो हिबा के वक़्त तक अस्तित्व में न हो, शून्य होता है I

अपवाद –

  • ऐसा बच्चा जिसका जन्म हिबा की तारीख से 6 महीने के अंदर हो जाये, वह सक्षम दान ग्राहीता होता है I
  • अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में हिबा शून्य होता है लेकिन अस्तित्व में न होने वाले व्यक्ति के पक्ष में आजीवन हित मान्य होता है I

भावी हिबा

  • भविष्य में उत्पन्न होने वाली किसी वस्तु का हिबा नहीं किया जा सकता है जैसे – अगले साल की फसल का हिबा
  • ऐसा हिबा जो दान दाता की मौत के बाद प्रभाव में आने वाला हो और जिसके बारे में यह साफ़ तौर से घोषित हो कि उसके जीवन काल में ऐसा हिबा खंडनीय है, शून्य होगा I

किसी घटना के घटित होने पर हिबा

किसी भविष्य की अनिश्चित घटना के घटित होने या न होने पर प्रभाव में आने वाला हिबा शून्य होता है क्यूंकि यह एक संयोग मात्र ही है कि वह घटना घटे या न घटे I

शर्त के साथ हिबा

जब किसी ऐसी शर्त के साथ हिबा किया जाए जो उसे पूर्णता से नीचे ले जाए, तो हिबा मान्य होता है लेकिन शर्त शून्य होती है और हिबा इस प्रकार प्रभाव में आएगा जैसे उसके साथ कोई शर्त न लगी हो I

शून्य शर्तें –

  • दान ग्राहीता के अंतरण की शक्तियों को निर्बन्धित करने वाली शर्तों का हिबा पर कोई असर नहीं होगा I जैसे – A किसी संपत्ति का हिबा B को इस शर्त के साथ करता है कि B उसका अंतरण नहीं करेगा या किसी विशेष व्यक्ति को ही अंतरण कर सकेगा I हिबा की यह शर्त शून्य है और हिबा पर इसका कोई असर नहीं होगा I हिबा वैध है I
  • उपभोग की रीति पर निर्बन्धन लगाने वाली शर्तें शून्य होती हैं और हिबा पर उसका कोई असर नहीं होगा I जैसे – A गाय का हिबा B को इस शर्त के साथ करता है कि वह दूध उसका दूध नहीं बेचेगा I शर्त शून्य है और हिबा मान्य है I

मान्य शर्तें –

  • किसी हिबा में, जिसमें दान दाता काय या उसके किसी भाग पर स्वामित्व का हिबा न करके सिर्फ उससे होने वाली आमदनी या उस वस्तु के उपभोग करने का हिबा करता है तो हिबा और शर्तें दोनों ही मान्य होते हैं I जैसे – A किसी संपत्ति का हिबा अपने पुत्र B को इस शर्त के साथ करता है कि B उसकी आमदनी में से 40 रूपए सालाना A को उसके जीवन काल में देता रहेगा और शेष आमदनी को अपने और C के बीच बराबर बांट लिया करेगा I यहाँ हिबा और शर्तें दोनों मान्य हैं I

हिबा का खंडन (रद्द करना)

मुस्लिम विधि में सभी स्वेच्छापूर्ण संव्यवहार खंडनीय होते हैं I हनफी विधि में हिबा हमेशा खंडनीय होता है हालाँकि पैगम्बर मोहम्मद साहब की परंपरा के कारण इसे अच्छा नहीं माना जाता है I शिया विधि में घोषणा मात्र से हिबा रद्द किया जा सकता है लेकिन हर हिबा रद्द नहीं किया जा सकता है I हनफी विधि में हिबा को न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है I

कब्ज़े के परिदान से पहले

इस मामले में विधि बहुत ही स्पष्ट है I कब्ज़े देने से पहले हिबा पूरा नहीं होता है इसलिए दाता को उसको रद्द करने का पूरा अधिकार होता है I

कब्ज़े के परिदान के बाद

कब्ज़े के परिदान के बाद भी दाता को हिबा को रद्द करने का पूरा अधिकार होता है लेकिन फर्क सिर्फ इतना होता है कि उसे दान ग्राहीता की सहमती या न्यायालय से डिक्री प्राप्त करनी होगी I निम्नलिखित अवस्थाओं को छोड़कर न्यायालय डिक्री प्रदान कर देगा I

  • जब दाता की मृत्यु हो गई हो I
  • जब दान ग्राहीता की मृत्यु हो गई हो I
  • जब दान ग्राहीता का दान दाता से रिश्ता निषिद्ध आसत्तियों के भीतर हो I
  • जब दाता और दान ग्रहीता का वैवाहिक संबंध हो I

हिबा के प्रकार

मुस्लिम विधि में अन्य प्रकार के दान भी होते हैं जो तथ्यत: हिबा की तरह ही होते है लेकिन कुछ बातों में हिबा से भिन्न होते हैं I अगर इस प्रकार के हिबा परिभाषा के आवश्यक तत्वों की पूर्ति न करे तो कोई आश्चर्य नहीं है I

हिबा-बिल-एवज

हिबा का अर्थ है ‘दान’ और एवज का अर्थ है ‘बदले में’ I इस तरह इसका मतलब है कि प्रतिकर के बदले में दान I जब कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का अंतरण किसी अन्य संपत्ति या वस्तु के एवज में करता है तो ऐसा संव्यवहार हिबा-बिल-एवज कहलाता है I हिबा-बिल-एवज, हिबा की मूल परिभाषा से अलग होता है I फिर भी इसे हिबा इसलिए मानते हैं कि शुरू में वह प्रतिकरयुक्त हिबा नहीं होता है I दान और प्रतिदान दो अलग-अलग संव्यवहार होते हैं I जिनको मिलाकर हिबा-बिल-एवज कहा जाता है I भारत में यह एक विक्रय या विनिमय है और इसमें विक्रय की सब प्रसंगतियाँ पाई जाती हैं I इसमें कब्ज़े का परिदान आवश्यक नहीं होता है I यह शुरू से ही अखंडनीय होता है I

आवश्यक शर्तें –  इसके 2 शर्तें हैं –

  • दान ग्राहीता की तरफ से प्रतिकर का वास्तविक भुगतान I

एक मामले में प्रिवी काउंसिल के मान्य न्यायाधीशों ने कहा कि निसंदेह प्रतिफल की इच्छा का कोई सवाल नहीं है I हिबा की वस्तु की तुलना में बिलकुल कम प्रतिकर भी पूरी तरह मान्य हो सकता है I कुछ मामलों में यहाँ तक भी कहा गया कि अंगूठी, कुरान, नमाज़ की चटाई या तस्बीह हिबा-बिल-एवज के संव्यवहार में अच्छा प्रतिफल हो सकता है I प्रतिफल जो भी, उसका वास्तविक और सदभावना पूर्ण भुगतान ज़रूरी है I केवल भुगतान करने का वादा पर्याप्त नहीं है I

  • दाता की तरफ से अपनी संपत्ति पर कब्ज़ा छोड़ने या उसे दान ग्राहीता को देने का सदभावना पूर्ण आशय I

हिबा-ब-शर्तुल-एवज

शर्त का अर्थ है ‘अनुबंध’ I हिबा-ब-शर्तुल-एवज का अर्थ हुआ -’अनुबंध के साथ किसी प्रतिफल के लिए किया गया हिबा I” जहाँ कोई हिबा इस शर्त के साथ किया जाता है कि दान ग्राहीता इस हिबा के बदले में दाता को कोई संपत्ति प्रदान करेगा तो ऐसे संव्यवहार को हिबा-ब-शर्तुल-एवज कहा जाता है I हिबा-ब-शर्तुल-एवज में प्रतिफल का भुगतान स्थगित कर दिया जाता है I क्यूंकि प्रतिफल तत्काल नहीं दिया जाता है इसलिए कब्ज़े का परिदान आवश्यक होता है I जब प्रतिफल का भुगतान कर दिया जाता है तो वह विक्रय की प्रकृति धारण कर लेता है I इसमें निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं –

  • इसमें कब्ज़े का परिदान ज़रूरी है, जैसे कि हिबा में I
  • जब तक एवज का भुगतान न किया यह खंडनीय होता है I
  • शुरू में यह हिबा की तरह होता है और एवज का भुगतान हो जाने पर यह विक्रय की प्रकृति धारण कर लेता है I

Filed Under: क़ानून / LAW, मुस्लिम विधि / Muslim Law Tagged With: क्या हिबा को रद्द किया जा सकता है, मुस्लिम विधि में हिबा का अर्थ, मुस्लिम विधि में हिबा क्या होता है

मुस्लिम विधि में तलाक़ क्या है और किन परिस्थितियों में मुस्लिम महिला तलाक़ मांग सकती है

June 30, 2021 by Mohd Mohsin Leave a Comment

इस्लाम से पहले की प्रथा

लगभग सभी प्राचीन देशों में तलाक़ किसी न किसी रूप में प्रचलित था I इस्लाम के आने से पहले पति को तलाक़ के असीमित अधिकार प्राप्त थे I

इस्लामी सुधार

अमीर अली के अनुसार, पैगम्बर मोहम्मद साहब ने काफी सुधार किये उनमें से एक यह है कि उन्होंने पति की तलाक़ देने की शक्ति को सीमित कर दिया और उन्होंने स्त्रियों को उचित आधार पर अलग हो जाने का अधिकार प्रदान किया I पैगम्बर मोहम्मद साहब ने कहा कि “अगर कोई स्त्री अपने विवाह से दुखी है तो ऐसे विवाह विच्छेद हो जाना चाहिए और यह ईश्वर की नज़र में अनुमोदित बातों में सबसे बुरा है I”

तलाक़ का मनमाना प्रयोग

मुस्लिम विधि के लगभग सभी विद्वान तलाक़ को उचित मानते हैं लेकिन उसके मनमाने या बिना कारण के प्रयोग को वे नैतिकता और धर्म की दृष्टी से बुरा समझते हैं I पैगम्बर मोहम्मद साहब का कथन है कि “जो मनमाने ढंग से अपनी पत्नी को अस्वीकार करता है वे ख़ुदा के यहाँ पाप का पात्र होता है I” मोहम्मद साहब ने अपने अंतिम वक़्त में बिना पंच या न्यायाधीश के हस्तक्षेप के मनमाने तलाक के प्रयोग को लगभग वर्जित ही कर दिया था I कुरान कहता है कि “अगर उनके मध्य वैवाहिक सम्बन्ध के टूटने की आशंका हो तो एक निर्णायक, पति की तरफ से और एक पत्नी की तरफ से नियुक्त करो I अगर वे अपने सम्बन्ध सुधारना चाहेंगे तो अल्लाह उन्हें एक-मत कर देगा I”

विवाह-विच्छेद के प्रकार

  • ईश्वरीय कृत्य द्वारा (पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर)
  • पक्षकारों के कृत्य द्वारा
  1.     पति द्वारा –  तलाक़, इला, जिहार
  2.     पत्नी के द्वारा –  तलाक़ ए तफ्वीज़ (प्रत्यायोजित तलाक़)
  • पारस्परिक सहमती द्वारा – खुला और मुबारत
  • न्यायिक विवाह-विच्छेद (मुस्लिम विधि, 1939 के अंतर्गत)
  1.     लियन और
  2.     फ्स्ख

 

तलाक़

तलाक़ शब्द का मतलब होता है ‘निराकरण करना’ या ‘नामंज़ूर करना’ I लेकिन मुस्लिम विधि में इसका अर्थ ‘वैवाहिक बंधन से मुक्त’ करना है I

तलाक की सामर्थ्य (Capacity for Talaq) 

सुन्नी विधि – कोई भी मुसलमान जो व्यस्क और स्वस्थ्य-चित्त हो, अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है I

शिया विधि – एक शिया मुसलमान जो, व्यस्क, स्वस्थ-चित्त, स्वतंत्र इच्छा वाला, कार्य की प्रकृति को समझने वाला है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक़ दे सकता है I

मौखिक तलाक़

पति बिना किसी तलाकनामे के सिर्फ शब्दों को बोलकर भी तलाक़ दे सकता है और शब्दों का कोई विशेष रूप ज़रूरी नहीं है केवल शब्द स्पष्ट होने चाहिए जिससे तलाक़ दिया जाना अच्छी तरह स्पष्ट हो जाए I

लिखित तलाक़

तलाकनामा केवल मौखिक तलाक दिए जाने का लेख हो सकता है I तलाकनामा पत्नी या उसके संरक्षक या दूसरे साक्षियों की मौजूदगी में लिखा जा सकता है I पत्नी का मौजूद होना ज़रूरी नहीं है I तलाकनामे द्वारा दिया गया तलाक दस्तावेज़ की तारीख से प्रभावी होता है पत्नी द्वारा उसकी प्राप्ति की तारीख से नहीं I

सुन्नी विधि – सुन्नी विधि में नामित स्त्री को तलाक देने की हस्ताक्षरित घोषणा ही काफी होती है, चाहे तलाक का आशय हो या न हो और गवाह भी ज़रूरी नहीं होते I

शिया विधि – शिया विधि में तलाक़ केवल मौखिक ही हो सकता है जो कि 2 गवाहों की मौजूदगी में होना चाहिए I यह जब लिखित हो सकता है जब पति मौखिक तलाक देने में असमर्थ हो I

पत्नी की अनुपस्थिति में तलाक़

वैसे तो यह ज़रूरी है कि तलाक के शब्द पत्नी की मौजूदगी में ही बोले जाएँ या उसको संबोधित हों I लेकिन पत्नी की गैर-मौजूदगी उसे शून्य या निष्प्रभावी नहीं बना देती है I लेकिन तब यह ज़रूरी हो जाता है कि तलाक के शब्द उसका नाम लेकर बोले जाएँ या शब्द स्पष्ट रूप से उसकी तरफ निर्देशित हों I

विवशता, नशे या मज़ाक की हालत में तलाक़

विवशता में तलाक़

सुन्नी विधि में विवशता में दिया गया तलाक भी मान्य और प्रभावी होता है, जैसे – पति का इरादा न होते हुए भी पिता को खुश करने के लिए दिया गया तलाक I शिया विधि में ऐसा तलाक अमान्य है I

नशे की हालत में तलाक़ – सुन्नी विधि में नशे की हालत में दिया गया तलाक भी मान्य होता है बशर्ते कि नशा उसकी इच्छा के विरुद्ध न दिया गया हो I

मज़ाक में तलाक़ – सुन्नी विधि में मज़ाक या खेल में दिया गया तलाक भी मान्य होता है I लेकिन शिया विधि में यह अमान्य होता है I

 

तलाक़ के विभिन्न तरीके 

निम्नलिखित तरीकों में से किसी भी तरीके से तलाक़ दिया जा सकता है –

  • तलाक़-उल-सुन्नत
  1.           तलाक़-ए-अहसन
  2.           तलाक़-ए- हसन
  • तलाक़-उल-बिद्दत

 

तलाक़-उल-सुन्नत

यह तलाक़ पैगम्बर मोहम्मद साहब की परंपरा के अनुसार कार्यान्वित किया जाता है I इसके 2 उप-भाग हैं –

तलाक़-ए-अहसन

इस अरबी शब्द का मतलब है – सबसे अच्छा I इससे यह स्पष्ट होता है कि यह सबसे अच्छा तलाक़ है I इसकी शर्तें निम्नलिखित है –

  • पति द्वारा एक ही वाक्य में तलाक़ के शब्दों को बोलना ज़रूरी है,
  • पत्नी का तुहर (पाक अवस्था) में होना चाहिए,
  • इसे इद्दत की अवधि में संभोग से दूर रहना ज़रूरी है I

अगर विवाह का समागम नहीं हुआ है तो तलाक-ए-अहसन देने के लिए पत्नी का तुहर की हालत में होना ज़रूरी नहीं है मतलब मासिक धर्म में भी तलाक दिया जा सकता है I जब पत्नी को मासिक धर्म न होता हो (वृद्धावस्था या अन्य किसी कारण से) या पति-पत्नी एक दूसरे से दूर हों, तो भी तलाक देने के लिए पत्नी का तुहर की हालत में होना ज़रूरी नहीं है I तलाक-ए-अहसन इद्दत की अवधि तक खंडनीय (Revocable) होता है I

कुरान में लिखा है कि “और तलाक़शुदा स्त्री को 3 मासिक धर्म की अवधि तक प्रतीक्षा करनी चाहिए I”

“और तुम्हारी उन स्त्रियों को जिन पर तुम्हें संदेह है कि उन्हें मासिक धर्म नहीं होता है तब उनका निर्धारित समय 3 माह है I

तलाक़-ए- हसन

इस अरबी शब्द का मतलब है -अच्छा I यह तलाक-ए-अहसन से थोड़ा कम अच्छा है I इसकी शर्तें निम्नलिखित हैं –

  • तलाक के शब्दों को 3 बार (अलग-अलग तुहर की हालत में) बोला जाना ज़रूरी है,
  • अगर पत्नी को मासिक धर्म होता है तो पहली तलाक़ तुहर की हालत में फिर दूसरी तलाक दूसरे तुहर में और फिर तीसरे तुहर में देना ज़रूरी है I
  • अगर पत्नी को मासिक धर्म नहीं होता है तो प्रत्येक तलाक 30 दिन के अंतराल पर दिया जाना ज़रूरी है I
  • तुहर की इन तीनों अवधि में सम्भोग बिलकुल नहीं होना चाहिए I

ऐसा तलाक तीसरी बार बोलने पर तुरंत अखंडनीय हो जाता है I यह तलाक कुरान की निम्न आयत पर आधारित है -“तलाक की घोषणा 2 बार की जा सकती है तब तक उन्हें अच्छे साथी की तरह रखो और अगर पति उसे तीसरी बार तलाक देता है तो पत्नी को उसके साथ रहना विधि-पूर्ण नहीं है जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह न कर ले I”

 

तलाक़-उल-बिद्दत

इसे तलाक-उल- बैन के नाम से भी जाना जाता है I यह तलाक का बुरा रूप है I शाफई और हनफी विधि इसे मान्यता देती है लेकिन इसे पाप समझती हैं I शिया और मालिकी इसे मान्यता नहीं देते हैं I तलाक की यह रीति निम्नलिखित बातों की अपेक्षा करती है –

  • एक ही तुहर के दौरान बोले गये तलाक के शब्द चाहे वे एक ही वाक्य में हो या अलग-अलग वाक्य में, जैसे – में तुम्हें 3 बार तलाक देता हूँ या मैं तुम्हें तलाक देता हूँ, मैं तुम्हें तलाक देता हूँ, मैं तुम्हें तलाक देता हूँ I
  • एक ही तुहर में दिया गया तलाक जिससे अखंडनीय विवाह विच्छेद का आशय साफ़ प्रकट होता हो I

 

तलाक़ कब अखंडनीय हो जाते हैं ?

 

  • तलाक-उल-सुन्नत
  1. तलाक-ए-अहसन – इद्दत की अवधि समाप्त होने पर
  2. तलाक-ए-हसन – उच्चारण करते ही तुरंत अखंडनीय हो जाता है I इद्दत की अवधि समाप्त हो जाना ज़रूरी नहीं है I
  • तलाक-उल-बिद्दत – यह तलाक इद्दत से पहले ही, उच्चारण होते ही अखंडनीय हो जाता है I अगर तलाक लिखित रूप में दिया गया है तो तलाकनामा लिखे जाने के तुरंत बाद प्रभावी हो जाता है I

इला

अगर कोई पति, जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है और स्वस्थ चित्त हो, अल्लाह की क़सम खाकर कहे कि वह 4 महीने या उससे अधिक समय तक या किसी अनिश्चित समय तक अपनी पत्नी से सम्भोग नहीं करेगा, तो उसे ‘इला’ करना कहा जाता है I जैसे – मैं अल्लाह की क़सम खाकर कहता हूँ कि में तुम्हारे पास नहीं जाऊँगा I यह मान्य इला है I अगर वह इस अवधि में संभोग नहीं करता है तो तलाक हो जाता है I

इला के आवश्यक तत्व

  • पति को स्वस्थ्य चित्त और व्यस्क होना चाहिए
  • वह अल्लाह की कसम खाए या प्रतिज्ञा करे
  • यह कि वह चार माह या उससे अधिक समय तक पत्नी से सम्भोग नहीं करेगा
  • पति द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना ज़रूरी है

इला का रद्द किया जाना

  • अपनी प्रतिज्ञा का समय खत्म होने से पहले पति फिर से सम्भोग शुरू कर दे
  • या इस अवधि के भीतर मौखिक रूप से इला का खंडन कर दिया जाए

शिया और शाफई विधि में पत्नी दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन के लिए न्यायालय जा सकती है और ऐसे में पति को 2 विकल्प प्राप्त होते हैं –

  • उसे तलाक दे दे
  • या उससे संभोग शुरू कर दे

दोनों से इंकार करने पर न्यायालय को विवाह विच्छेद की शक्ति होती है I लेकिन सुन्नी विधि में न्यायिक कार्यवाही ज़रूरी नहीं है I भारत में इला विधि से न ही तलाक दिया जाता है और न ही यहाँ इसका कोई महत्त्व है I

जिहार 

अगर पति (स्वस्थ्य चित्त और व्यस्क है) अपनी पत्नी की तुलना अपनी मां या निषिद्ध संबंधों के भीतर किसी भी स्त्री से करे और जब तक वह प्रायश्चित न कर ले, पत्नी को उससे सम्भोग करने का अधिकार है I प्रायश्चित न करने पर पत्नी विवाह विच्छेद की अधिकारी हो जाती है I लेकिन यहाँ आशय बहुत महत्वपूर्ण है अगर तुलना में उसका आशय सम्मान प्रकट करना था तो प्रायश्चित ज़रूरी नहीं है I भारत में इसका महत्त्व अब समाप्त हो गया है I

जिहार के आवश्यक तत्व 

  • पति स्वस्थ्य चित्त और व्यस्क हो
  • वह अपनी पत्नी की तुलना अपनी मां या निषिद्ध संबंधों के भीतर किसी से करे

जिहार के विधिक प्रभाव 

  • सम्भोग अवैध हो जाता है
  • प्रायश्चित करना आवश्यक
  • प्रायश्चित न करने पर न्यायिक प्रथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है

 

तलाक के परिणाम 

तलाक किसी भी तरीके से दिया गया हो उसके पूर्ण होने पर निम्नलिखित परिणाम होते हैं –

  • दंपत्ति दूसरा विवाह करने के हक़दार हो जाते है
  • अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है तो स्त्री अपनी इद्दत की अवधि समाप्त होने पर दूसरे पुरुष से विवाह कर सकती है
  • अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त नहीं हुआ है तो स्त्री तुरंत विवाह कर सकती है
  • अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है और तलाक की तारीख़ पर उस स्त्री को मिलाकर पति की 4 पत्नियाँ रही हों तो तलाक़शुदा पत्नी की इद्दत पूरी हो जाने पर ही दूसरी पत्नी से विवाह कर सकता है
  • मेहर तुरंत देय हो जाता है
  • अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है तो पत्नी तत्काल पूरा मेहर पाने की हक़दार है चाहे मेहर मुअज्जल हो या मुवज्जल
  • अगर विवाह पूर्णावस्था को नहीं पहुंचा है और विवाह संविदा में मेहर की राशि निश्चित थी तो आधे मेहर की हक़दार होती है और अगर निश्चित नहीं थी तो 3 कपड़े पाने की हक़दार होती है
  • जहाँ पति द्वारा धर्म त्याग के कारण तलाक हुआ हो और विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया हो तो पत्नी पूरे मेहर की हक़दार है I

तलाक़-इ-ताफवीज़ (प्रत्यायोजित तलाक़)

ताफ्वीज का मतलब है शक्ति का प्रत्यायोजन I तलाक का यह सिद्धांत मुस्लिम विधि का एक महत्वपूर्ण विषय है I कोई पति या तो खुद अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है या तलाक देने की शक्ति का प्रत्यायोजन किसी दूसरे पक्ष को या अपनी पत्नी कर सकता है I शक्ति का ऐसा प्रत्यायोजन ताफ्वीज कहलाता है I जैसे – विवाह के पहले या बाद में हुई कोई भी संविदा जिसके द्वारा पति ने पत्नी को बिना उसकी सहमती से दूसरा विवाह करने पर अपने आपको उससे अलग करने का अधिकार दिया हो, वैध होती है I लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी है कि पत्नी को दिया गया विकल्प पूर्ण और असीमित न हो और शर्तें युक्तियुक्त हों और इस्लाम और लोक नीति के खिलाफ न हों I

यह रोचक है कि इस तलाक द्वारा पत्नी पति को तलाक नहीं देती बल्कि पति की ओर से खुद को तलाक देती है I लेकिन पति अपनी शक्ति प्रत्यायोजित करके खुद तलाक देने के अधिकार से वंचित नहीं हो जाता है I

 

खुला

इस्लाम धर्म के आने से पहले एक पत्नी को किसी भी आधार पर तलाक की मांग का अधिकार नहीं था I कुरान द्वारा पहली बार पत्नी को तलाक प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ था I कुरान में भी कहा गया है कि अगर पत्नी कुछ धन पति को देकर अपना पीछा छुड़ा ले तो इसमें पति या पत्नी को पाप नहीं है I फतवा-ए-आलमगीरी में भी कहा गया है कि जब विवाह के पक्षकार राज़ी हों और यह आशंका हो कि उनका आपस में रहना संभव नहीं है तो पत्नी प्रतिफल के रूप में कुछ संपत्ति पति को वापस करके खुद को उसके बंधन से मुक्त कर सकती है I

खुला का शाब्दिक अर्थ है – हटाना या उतारना, खोलना I विधि में इसका अर्थ है – पति द्वारा पत्नी पर अपने अधिकार और प्रभुत्व का परित्याग I

खुला के आवश्यक तत्व 

  • पत्नी की ओर से प्रस्ताव आवश्यक
  • छुटकारा पाने के लिए प्रतिकर के प्रस्ताव की स्वीकृति आवश्यक
  • प्रसताव पति द्वारा स्वीकार किया जाना आवश्यक I

खुला के लिए क्षमता 

  • व्यस्क
  • स्वस्थ्य चित्त
  • स्वतंत्र इच्छा वाला
  • परिणाम की जानकारी रखने वाला
  • सुन्नी विधि में शुरू के दो तत्व आवश्यक हैं I

मुबारत (पारस्परिक छुटकारा)

मुबारत का शाब्दिक अर्थ है – पारस्परिक छुटकारा I मुबारत में प्रस्ताव चाहे पत्नी की तरफ से हो या पति की तरफ से, उसकी स्वीकृति अखंडनीय तलाक कर देती है और पत्नी को इद्दत का पालन करना आवश्यक होता है I मुबरत में अरुचि दोनों की तरफ से होती है और दोनों अलग होना चाहते हैं I

लिएन (व्यभिचार का झूठा आरोप)

जब कोई पति अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाये और आरोप झूठा हो, वहां पत्नी को अधिकार हो जाता है कि वह दावा करके विवाह विच्छेद करा ले I

लिएन के आवश्यक तत्व

  • व्यस्क और स्वस्थ्य चित्त पति अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाए या बच्चों का पिता होने से इनकार करे I
  • ऐसा आरोप झूठा हो I
  • विवाह विच्छेद के लिए कानूनी कार्यवाही आवश्यक
  • नियमित वाद दायर होना आवश्यक केवल आवेदन-पत्र काफी नहीं I

पति अपने द्वारा लगाये गये आरोप को वापस भी ले सकता है –

  • आरोप का वापस लेना सद्भावपूर्ण होना चाहिए न कि वाद को निष्फल बनाने के लिए
  • उसका बिना शर्त के होना ज़रूरी है
  • उसका वाद की सुनवाई के समय या पहले होने आवश्यक है I

 

न्यायिक विवाह विच्छेद (मुस्लिम विवाह विच्छेद, 1939 द्वारा)

इस अधिनियम के पारित होने से पहले किसी मुस्लिम पत्नी को तलाक की डिक्री प्रदान करने के लिए केवल 2 आधारों पर मान्यता प्राप्त थी –

  • पति की नपुंसकता
  • व्यभिचार का झूठा आरोप

लेकिन इस अधिनियम के बाद, जो सभी मुसलमानों पर चाहे वे किसी भी स्कूल से संबंधित हों, लागू होता है, की धारा 2 के अंतर्गत 9 आधारों पर तलाक लेने का उपबंध किया गया है I

  • पति की अनुपस्थिति – पति अगर 4 साल से लापता हो तो पत्नी तलाक की डिक्री पाने की हक़दार होगी I ऐसी डिक्री, डिक्री की तिथि से 6 महीने बाद प्रभावी होगी I इतने समय में अगर पति आ जाए और कोर्ट को संतुष्ट कर दे कि वह दाम्पत्य कर्तव्य का पालन कर रहा है तो डिक्री अपास्त करनी पड़ेगी I

 

  • पत्नी का भरण-पोषण करने में असफलता – अगर पति 2 साल तक भरण-पोषण करने में असफल रहे I पति अपनी निर्धनता, अस्वस्थ्यता, बेरोज़गारी, कारावास या अन्य कोई कारण के आधार पर प्रतिवाद नहीं कर सकता है I

 

  • पति का कारावास – अगर पति को 7 साल या उससे अधिक का कारावास मिला हो I लेकिन दंडादेश अंतिम होना चाहिए I वरना डिक्री पारित नहीं की जा सकती है I

 

  • दाम्पत्य दायित्वों के पालन में असफलता – अगर बिना उचित कारण की पति ने 3 साल तक दायित्वों का पालन नहीं किया है तो पत्नी तलाक की डिक्री पाने की हक़दार है I इस अधिनियम में “पति के दाम्पत्य दायित्वों” की परिभाषा नहीं दी गयी है I इस प्रयोजन के लिए कोर्ट ऐसे दाम्पत्य दायित्वों का अवलोकन करेगा जिनको इस अधिनियम की धारा 2 की किसी उप खंड में शामिल नहीं किया गया है I

 

  • पति की नपुंसकता – अगर पति विवाह के समय नपुंसक था और अब भी है तो पति तलाक की डिक्री की हक़दार है I लेकिन कोर्ट ऐसी डिक्री पारित करने से पहले पति को 1 साल का वक़्त देगा I अगर उस अवधि में पति यह साबित करने में सफल रहता है कि अब वह नपुंसक नहीं है तो डिक्री पारित नहीं की जाएगी I पति नपुंसक जब कहा जायेगा जब वह सम्भोग करने में असमर्थ हो I नपुंसकता 2 तरह की होती है 1- शारीरिक ( यह 2 तरह की होती है 1- पूर्ण और 2- संबंधित )    2- मानसिक (ऐसी नपुंसकता में शारीरिक क्षमता होते हुए भी सम्भोग करने की इच्छा नहीं होती है ) I डिक्री पारित करने के लिए पति का पूर्ण नपुंसक होना ज़रूरी नहीं है I

 

  • पति का पागलपन – अधिनियम की धारा 2(6) यह कहती है कि अगर पति 2 साल से पागल रहा हो या कुष्ठ रोग या उग्र रतिज रोग से पीड़ित हो I अंतिम दोनों रोग का 2 साल से होना ज़रूरी नहीं है I

 

  • पत्नी द्वारा विवाह की अस्वीकृति – अधिनियम की धारा 2(7) के अंतर्गत तलाक की डिक्री प्राप्त की जा सकती है I जब पत्नी यह सिद्ध कर दे कि-
  1. उसका विवाह उसके पिता या संरक्षक द्वारा कराया गया था I
  2. 15 साल की उम्र हो जाने के बाद लेकिन 18 साल की उम्र होने से पहले उसने विवाह को अस्वीकार कर दिया था I
  3. विवाह का सम्भोग नहीं हुआ था I
  • पति की निर्दयता – अधिनियम की धारा 2(8) के अंतर्गत पत्नी तलाक की डिक्री प्राप्त कर सकती है I अगर पति निर्दयता का व्यवहार करता हो, जैसे –
  1. पति उसे पीटता हो या उससे क्रूरता का व्यवहार करता हो जिससे कि उसका जीवन दुःखमय हो गया हो I भले ही दुर्व्यवहार शारीरिक न हो I
  2. पत्नी को अनैतिक जीवन बिताने के लिए बाध्य करता हो I
  3. उसको अपने धर्म पालन से रोकता हो I
  4. अगर उसकी एक से ज्यादा पत्नियाँ हैं तो कुरान के अनुसार उसके साथ समानता का व्यवहार करता हो I

 

  • मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विच्छेद के मान्य आधार – इस खंड में इला, जिहार, खुला, मुबारत, तफवीज आते हैं I

धर्मत्याग का विवाह पर प्रभाव 

यह विषय मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा 4 के अंतर्गत आता है Iइस अधिनियम के लागू होने से पहले किसी भी पक्षकार द्वारा इस्लाम धर्म का त्याग स्वत: विवाह विच्छेद कर देता था I लेकिन अब अगर पति इस्लाम धर्म का त्याग करता है तो विवाह स्वत: विच्छेद हो जाएगा अगर पत्नी इस्लाम धर्म का त्याग कर दे तो स्वत: विवाह विच्छेद नहीं माना जायेगा I इस सम्बन्ध में 2 नियम हैं –

  • अधिनियम की धारा 4 उस स्त्री पर लागू होती है जो मूलत: मुस्लिम है और इस्लाम धर्म का त्याग कर देती है I ऐसी स्त्री का धर्म त्याग के आधार स्वत: विवाह विच्छेद नहीं होगा I लेकिन ऐसी स्त्री इस अधिनियम की धारा 2 में दिए गये 9 आधारों में से किसी आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकती है I
  • धारा 4 उन स्त्रियों पर लागू नहीं होगी जिन्होंने किसी अन्य धर्म का त्याग कर इस्लाम धर्म को अपनाया हो और फिर अपना पूर्व धर्म ग्रहण कर लिया हो या जो स्त्रियाँ मूलत: मुस्लिम न हों I

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मुस्लिम विवाह में मेहर क्या होता है और उसका क्या महत्त्व है

June 30, 2021 by Mohd Mohsin Leave a Comment

इस्लाम से पहले की स्थिति

इस्लाम के आने से पहले विवाह के वक़्त स्त्री का पिता मेहर की रक़म प्राप्त करता था I हालाँकि उस वक़्त स्त्री के गुज़र-बसर करने के लिए पति द्वारा उसे कुछ रक़म देने की प्रथा थी I हालाँकि उचित क़ानून नहीं होने के कारण इस नियम का पालन नहीं होता था I लेकिन इस्लाम ने पत्नी को मेहर का हक़दार बना दिया I उस वक़्त एक प्रथा ‘शिगार विवाह’ के नाम से चलन में थी जिसमें एक पुरुष अपनी बेटी या बहन को अपने विवाह के बदले में दूसरे व्यक्ति को दे देता था तथा उसकी बहन या पुत्री से वह खुद विवाह कर लेता था I कुरान में लिखा है कि “अगर तुम अपनी पत्नियों से अलग होते हो तो उन्हें सौहार्द से विदा करो, जो चीज़ें तुमने उन्हें कभी दी हों, उन्हें फिर उनसे लेने की तुम्हें अनुमति नहीं है I”

मुस्लिम विवाह में मेहर

मेहर की परिभाषा

मुल्ला के अनुसार, “मेहर एक ऐसी धनराशि या संपत्ति है, जिसको विवाह के प्रतिकर के रूप में प्राप्त करने के लिए पत्नी हक़दार है I”

तैय्यबजी के अनुसार, “मेहर वह धनराशि है जो विवाह के बाद पति द्वारा पत्नी को पक्षकारों के क़रार या कानून द्वारा देय होती है I वह या तो तात्कालिक (मुअज्जल) या स्थगित (मुवज्जल) होता है I”

विल्सन के अनुसार, “मेहर पत्नी द्वारा शरीर के समर्पण का प्रतिकर (बदला) है I”

भारत में मुस्लिम विधिवेत्ताओं के अनुसार, मेहर सोना अथवा चाँदी के वज़न में होना चाहिए ताकि मुद्रा के उतार-चढ़ाव में स्त्री के अधिकारों की सुरक्षा की जा सके I


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मेहर की प्रकृति

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा के मामले न्यायाधीश महमूद ने कहा कि “मेहर मुस्लिम विधि में वह धनराशि या संपत्ति होती है जिसे पति विवाह के प्रतिकर के रूप में पत्नी को देने का वादा करता है और अगर विवाह के समय इसे नियत न भी किया जाए या इसका ज़िक्र न किया जाए तो भी क़ानून पत्नी को मेहर का हक़ प्रदान करता है I

मेहर की प्रकृति के सम्बन्ध में अब्दुर्रहीम का मत न्यायमूर्ति महमूद के मत से भिन्न है I उनके अनुसार, “मेहर वैवाहिक संविदा का प्रतिफल नहीं है, बल्कि वह पति पर मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित एक कर्तव्य है जिसे पत्नी के सम्मान के प्रतीक के रूप में पति पूरा करने के लिए बाध्य है I”

मेहर का महत्त्व

फतवा-ए-काज़ी खां के अनुसार, “मेहर विवाह का एक ऐसा आवश्यक अंग है कि अगर विवाह के वक़्त संविदा में उसका ज़िक्र न हो, तो भी विधि स्वत: संविदा के आधार उसकी पूर्वधारणा कर लेगी I” अगर विवाह के पहले स्त्री अपने मेहर का त्याग कर दे या मेहर के बिना ही विवाह करने के लिए राज़ी हो जाए, तो ऐसा करार या सहमती अमान्य होगी I मेहर का इतना महत्त्व इसलिए है कि वह पति द्वारा तलाक़ के अधिकार के मनमाने प्रयोग के विरुद्ध पत्नी को सुरक्षा प्रदान करता है I

मेहर का उद्देश्य

मेहर के उद्देश्य हैं –

  • मेहर का उद्देश्य पत्नी के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में पति पर एक दायित्व आरोपित करना I
  • पति द्वारा तलाक के मनमाने प्रयोग पर एक अवरोध रखना है I

मेहर की विषय-वस्तु

कोई भी वस्तु जिसका कुछ मूल्य हो, जो माल की परिभाषा में आती हो और अस्तित्व में हो, मेहर की विषय-वस्तु हो सकती है I लेकिन कुछ वस्तुएं जो मेहर की विषय-वस्तु नहीं हो सकती हैं जैसे –

  • ऐसी वस्तुएं जो मेहर निश्चित करते वक़्त अस्तित्व में न हों, जैसे – अगले वर्ष की फसल
  • वस्तुएं जो मुसलमानों के लिए निषिद्ध (हराम) हों, जैसे- शराब, सूअर का मांस
  • पति द्वारा सेवा सुन्नी विधि में मेहर की विषय-वस्तु नहीं हो सकती है लेकिन अगर पति एक निश्चित अवधि तक सेवा करने का वचन देता है, तो शिया विधि में यह मेहर की विषय-वस्तु हो सकती है
  • अगर मेहर की संपत्ति के अंतर्गत कुछ संपत्ति अवैध है तो ऐसे मामले में केवल वैध संपत्ति ही मेहर की विषय-वस्तु मानी जाएगी

मेहर का वर्गीकरण

राशि के आधार पर मेहर 2 वर्गों में बाँटा जा सकता है –

  • निश्चित मेहर (मेहर-इ-मुसम्मा) (Specified Dower)

      1. मुअज्जल (तात्कालिक) मेहर (Prompt Dower)

      2. मुवज्जल (स्थगित) मेहर (Deferred Dower)

  • उचित मेहर (मेहर-इ-मिस्ल) (Proper Dower)

 

निश्चित मेहर

अगर विवाह संविदा में मेहर की धनराशि का उल्लेख हो तो ऐसा मेहर निश्चित मेहर होता है I अगर विवाह के पक्षकार स्वस्थ्यचित और व्यस्क हों तो वे मेहर की धनराशि विवाह के वक़्त खुद तय कर सकते हैं और अव्यस्क्त की तरफ से उसके अभिभावक मेहर की धनराशि तय कर सकते हैं I अभिभावक द्वारा निर्धारित की गई धनराशि अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी होगी I हनफी विधि में मेहर की रक़म 10 दिरहम से कम और मालिकी विधि में 3 दिरहम से कम तय नहीं की जा सकती है I शिया विधि में मेहर की कोई न्यूनतम सीमा नहीं है I यह निम्नलिखित 2 प्रकार का होता है I

  • मुअज्जल मेहर – विवाह हो जाने पर मुअज्जल मेहर तत्काल देय हो जाता है और मांग पर तत्काल अदायगी ज़रूरी है I यह विवाह के पहले या बाद में कभी भी वसूल किया जा सकता है I अगर विवाह की पूर्णावस्था प्राप्त नहीं हुई है और मुअज्जल मेहर का भुगतान न होने के कारण पत्नी पति के साथ नहीं रहती है तो पति द्वारा लाया गया दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन (Restitution of Conjugal Rights) का वाद ख़ारिज कर दिया जायेगा I मुअज्जल मेहर विवाह की पूर्णावस्था प्राप्त हो जाने पर मुवज्ज्ल नहीं हो जाता है I पूर्णावस्था प्राप्त कर लेने पर भी पत्नी को इस मेहर की वसूली का वाद दायर करने का पूरा अधिकार है I अंतर केवल इतना हो जाता है कि पूर्णावस्था प्राप्त कर लेने पर न्यायालय इस शर्त पर पति को डिक्री प्रदान करेगा कि पहले वह मेहर का भुगतान करे I क्यूंकि मुअज्जल मेहर मांग पर देय होता है, इसलिए अवधि की गणना मांग और इंकार के समय से शुरू हो जाती है I यह अवधि 3 साल की होती है I अगर विवाह अवस्था में पत्नी कोई मांग नहीं करती है तो केवल मृत्यु या तलाक़ की तारीख से अवधि की गणना आरम्भ होती है I

 

  • मुवज्जल मेहर – यह मृत्यु या तलाक़ द्वारा विवाह के समाप्त हो जाने पर अथवा क़रार द्वारा निर्धारित किसी निश्चित घटना के घटित होने पर देय होता है I पत्नी इससे पहले इसकी मांग नहीं कर सकती लेकिन अगर पति चाहे तो ऐसा मेहर उसे अदा कर सकता है I मुवज्जल मेहर में पत्नी का हित निहित होता है I उसकी मृत्यु से भी वह टल नहीं सकता और उसके मर जाने पर उसके उत्तराधिकारी उसका दावा कर सकते हैं I

मुअज्जल और मुवज्जल मेहर के विषय में पूर्वधारणा

कठिनाई उस वक़्त उत्पन्न होती है जब विवाह का दस्तावेज़ (कबीननामा) इस विषय में मौन होता है कि कितना भाग मुअज्जल होगा और कितना भाग मुवज्जल ?

सुन्नी विधि में मेहर के विषय में कबीननामा और रिवाज के मौन होने पर आधा भाग मुअज्जल और आधा भाग मुव्ज्जल माना जाता है I शिया विधि में मेहर की पूरी राशि मुअज्जल मानी जाती है I

इलाहाबाद और बम्बई उच्च न्यायालय के मत से दोनों का अनुपात पत्नी की स्थिति, स्थानीय रिवाज, मेहर की कुल राशि और पति की हैसियत के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए I

 

उचित (रिवाजी) मेहर

अगर मेहर की राशि निश्चित न हो तो पत्नी उचित मेहर की अधिकारिणी होती है, चाहे विवाह की संविदा इस शर्त पर ही की गई हो कि पत्नी किसी मेहर दावा नहीं करेगी I उचित मेहर का निर्धारण निम्नलिखित आधारों पर किया जाना चाहिए –

  • पत्नी की निजी अर्हताएं – उम्र, सौन्दर्य, समृद्धि, समझदारी और सदाचार
  • उसके पिता के खान-दान की सामाजिक स्थिति
  • उसके पिता पक्ष की सम्बन्धी स्त्रियों को दिया गया मेहर
  • उसके पति की आर्थिक स्थिति
  • तत्कालीन परिस्थितियां

यह नियम शिया लोगों में भी प्रचलित है, जिसमें मेहर की अधिकतम सीमा 500 दिरहम रखी गयी है I लेकिन सुन्नी विधि में कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं है I

मेहर में वृद्धि या कमी

पति विवाह के बाद किसी भी समय मेहर में वृद्धि कर सकता है I उसी प्रकार पत्नी, जिसने यौवनावस्था प्राप्त कर ली है, अपनी स्वतंत्र सहमती से मेहर की पूरी धनराशि को छोड़ सकती है या कुछ कम कर सकती है I पत्नी के द्वारा मेहर में दी गई छूट को हिबा-ए-मेहर कहते हैं I मेहर की छूट लिखित होनी चाहिए I

मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी के अधिकार

 

समागम से इंकार

अगर मुअज्जल मेहर का भुगतान नहीं किया गया है और विवाह पूर्णावस्था को नहीं पहुँचा है तो पत्नी को समागम से इंकार करने का अधिकार है I लेकिन अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है तो पत्नी समागम से इंकार नहीं कर सकती है बशर्ते कि पूर्णावस्था प्राप्त होने के वक़्त वह अवयस्क या विकृतचित्त न रही हो I अगर पत्नी अवयस्क है या विकृतचित्त है तो उसके संरक्षक को यह अधिकार है कि वह मेहर के भुगतान होने तक उसे पति के घर जाने से रोके रखे I

ऋण के रूप में मेहर का अधिकार

पति के जीवन-काल में पत्नी पति के विरुद्ध वाद लाकर मेहर प्राप्त कर सकती है I अगर पति की मृत्यु हो गई है और मेहर का भुगतान नहीं हुआ है तो विधवा पति के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद लाकर मेहर प्राप्त कर सकती है I पति के उत्तरदायी व्यक्तिगत रूप से मेहर के भुगतान के लिए उत्तरदायी नहीं है वे केवल उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति की सीमा तक ही उत्तरदायी हैं I

मेहर के एवज में पति की सम्पदा पर काबिज़ रहने का का अधिकार 

अगर मेहर का भुगतान नहीं हुआ है तो विधवा पति की संपत्ति पर तब तक काबिज़ रह सकती है जब तक कि उसे मेहर का भुगतान नहीं हो जाता है I यह कब्ज़ा उसे उस संपत्ति में स्वामित्व का अधिकार नहीं देता इसलिए वह उस संपत्ति को किसी अन्य को अंतरित नहीं कर सकती है I

मेहर प्राप्त करने के लिए वाद लाने की समय-सीमा

मेहर की वसूली के लिए भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत निर्धारित अवधि के अंदर ही वाद प्रस्तुत हो जाना चाहिए वरना वाद खारिज हो जायेगा I

  • मेहर अगर मुअज्जल है तो पत्नी द्वारा इसकी मांग करने की तिथि से 3 वर्षों के अंदर ही वाद दाखिल हो जाना चाहिए I
  • विवाह विच्छेद हो जाने पर मुअज्जल या मुवज्जल मेहर तुरंत देय हो जाते हैं I इस मामले में वाद की परिसीमा अवधि विवाह-विच्छेद की तिथि से 3 वर्ष तक है I
  • विवाह-विच्छेद या पति की मृत्यु के मामले में, अगर पत्नी उस स्थिति में नहीं है, तो 3 वर्ष की अवधि तब से प्रारम्भ मानी जाएगी जब पत्नी को तलाक़ या मृत्यु की सूचना मिलती है I
  • किसी विधवा द्वारा मेहर के बदले में पति की संपत्ति पर कब्ज़ा बनाये रखने की दशा में वाद की 3 वर्ष की परिसीमा अवधि पति की मृत्यु के दिन से ही मानी जाएगी I

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मुस्लिम विवाह की आवश्यक शर्तें

June 26, 2021 by Mohd Mohsin 1 Comment

मुस्लिम विधि में विवाह (निकाह) की अवधारणा 

विवाह एक संस्था है I यह संस्था मानव सभ्यता का आधार है I विवाह हर धर्म, समाज इत्यादि की ज़रुरत है I मुस्लिम विधि में भी विवाह, जिसे निकाह कहा गया है, की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया गया है I  पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने कहा है कि “निकाह आधा ईमान है I” 

निकाह (विवाह)का शाब्दिक अर्थ है – स्त्री और पुरुष का यौन संयोग और विधि में इसको निकाह (विवाह) कहा गया है I 

बेली के सार संग्रह के अनुसार, “विवाह स्त्री और पुरुष के यौन समागम को वैध बनाने और संतान उत्पन्न करने के लिए की गई संविदा है I”

पैगम्बर मोहम्मद साहब ने अरब समाज की बहुत सी कुरीतियों को दूर किया तथा स्त्री की सहमती विवाह के लिए आवश्यक कर दी I

मुस्लिम विधि में विवाह (निकाह) की परिभाषा 

हेदाया के अनुसार, “विवाह एक विधिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष के बीच समागम और बच्चों की उत्पत्ति तथा औरसीकरण पूरी तरह वैध और मान्य होते हैं I”

अब्दुर्रहीम के अनुसार, “विवाह की प्रथा में “इबादत (धार्मिक कृत्य)’ ‘मुआमलात (व्यावहारिक कृत्य)’ दोनों गुण पाए जाते हैं, मतलब मुस्लिम रिवाजों के अंतर्गत विवाह पूरी तरह संविदा होते हुए भी श्रद्धात्मक कार्य है I”

अब्दुर्रहीम का यह कथन पैगम्बर मोहम्मद साहब के इस कथन पर आधारित है कि “विवाह मेरी सुन्नत है I जो लोग जीवन के इस ढंग को नहीं अपनाते वे मेरे अनुयायी नहीं हैं I” इस्लाम में संन्यास नहीं है I

मुस्लिम विधिवेत्ताओं का इस विषय पर मैतक्य है कि विवाह सुन्नत-ए-मुवक्किदा है मतलब जो लोग विवाह करते हैं वह दूसरी दुनियाँ में पुरस्कृत होते हैं और जो विवाह नहीं करते वे पाप के भागी हैं I

विवाह के उद्देश्य 

तिरमिज़ी विवाह के 5 उद्देश्यों का उल्लेख करती है –

  • कामवासना का नियमन 
  • गृहस्थ जीवन का नियमन 
  • वंश की वृद्धि 
  • पत्नी और बच्चों की देखभाल और ज़िम्मेदारी में आत्मसंयम   
  • सदाचारी बच्चों का पालन  

पैगम्बर मोहम्मद साहब ने कहा है कि “पुरुष स्त्रियों से विवाह उनकी धर्मनिष्ठा, संपत्ति या उनके सौन्दर्य के लिए करते हैं लेकिन उन्हें विवाह केवल धर्मनिष्ठा के लिए करना चाहिए I 

विवाह की प्रकृति 

मुस्लिम विवाह की प्रकृति के बारे में विचार अलग-अलग हैं I कुछ विधिशास्त्रियों के अनुसार मुस्लिम विवाह पूरी तरह एक सिविल संविदा है जबकि कुछ विधिशास्त्रियों ने इसे धार्मिक संस्कार भी कहा है I 

जिन विधिशास्त्रियों ने मुस्लिम विवाह को केवल सिविल संविदा बताया है उनके विचार इस तथ्य पर आधारित हैं कि संविदा के सभी आवश्यक तत्व मुस्लिम विवाह में मिलते हैं I जैसे –

  • विवाह में संविदा के जैसे ही प्रस्ताव (इजाब) और स्वीकृति (क़ुबूल) होना ज़रूरी है I इसके अलावा विवाह कभी भी स्वतंत्र सहमती के बिना नहीं हो सकता है और ऐसी सहमती प्रपीड़न, कपट, असम्यक असर द्वारा प्राप्त नहीं होनी चाहिए I

 

  • अवयस्क की तरफ से उसके अभिभावक द्वारा की गई संविदा व्यस्क होने पर निरस्त की जा सकती है I ठीक इसी तरह मुस्लिम विवाह में भी होता है I

 

  • अगर मुस्लिम पक्षकार विवाह के समय ऐसा अनुबंध करते हैं जो युक्तियुक्त और इस्लाम के विरुद्ध न हो तो वह विधि द्वारा प्रवर्तनीय होगा I 

 

  • सिविल संविदा की तरह ही विवाह संविदा के उल्लंघन हेतु प्रावधान विहित हैं I हालाँकि क़ुरान और हदीस में इसकी आलोचना की गई है I

अब्दुल क़ादिर बनाम सलीमा के मामले में न्यायाधीश महमूद ने मुस्लिम विवाह को विक्रय संविदा के समान बताया है I न्यायाधीश महमूद ने कहा कि “मुसलमान लोगों में शादी एक संस्कार नहीं है बल्कि एक सिविल संविदा है I हालाँकि निकाह होते वक़्त क़ुरान की कुछ आयतें पढ़ी जाती हैं लेकिन फिर भी वे एक सिविल संविदा है I सिविल संविदा लिखित रूप में ही हो यह ज़रूरी नहीं है I विवाह में एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव और दूसरे के द्वारा या उसकी तरफ से उसके अभिभावक द्वारा स्वीकृत होना चाहिए I यह सहमती सक्षम गवाहों के सामने होनी चाहिए I 

एक दूसरा विचार यह है कि विवाह पूरी तरह से एक सिविल संविदा नहीं है बल्कि वह धार्मिक संस्कार भी है I 

अनीस बेग़म बनाम मोहम्मद इस्तफा के मामले में न्यायाधीश शाह सुलेमान ने एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा कि मुस्लिम विवाह एक सिविल संविदा और धार्मिक संस्कार दोनों है I न्यायाधीश सुलेमान ने कहा कि मुस्लिम विवाह एक इबादत है I पैगम्बर मोहम्मद साहब कहते हैं कि “ए लोगों तुम में से जो इस काबिल हैं उसे शादी करनी चाहिए क्यूँकि यह तुम्हारे अनैतिक देखने पर प्रतिबंध लगाती है और जो इस योग्य नहीं हैं उन्हें ऐसा ही रहने दो I 

इस सन्दर्भ में एक हदीस भी है- “वह जो शादी करते हैं अपना आधा धर्म पूरा कर लेते हैं और जो बचा हुआ आधा धर्म है अल्लाह से डर कर और पवित्र जीवन व्यतीत करके पूरा कर सकते हैं I 

मुस्लिम विवाह धार्मिक संस्कार भी है (न्यायाधीश महमूद), के पक्ष में तर्क

  • यह भविष्य की घटनाओं पर आधारित नहीं हो सकता है,
  • यह सीमित समय अवधि के लिए नहीं हो सकता है, (मुता विवाह एक अपवाद है)
  • विक्रेता माल के विक्रय की संविदा को निरस्त करते हुए वह माल का फिर से विक्रय कर सकता है जबकि विवाह की संविदा में पत्नी इस कारण कि मेहर की राशि का आंशिक भुगतान नहीं हुआ है, पति के विरुद्ध तलाक प्राप्त नहीं कर सकती अथवा अन्य पुरुष के साथ नहीं रह सकती है I 

निष्कर्ष

निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम विवाह न तो पूरी तरह सिविल संविदा है और न ही धार्मिक संस्कार, बल्कि यह दोनों का सम्मिश्रण है I

 

मान्य विवाह के आवश्यक तत्व 

मुस्लिम विवाह संपन्न होने के वक़्त कोई धार्मिक अनुष्ठान (Religious Rituals) आवश्यक नहीं है I विवाह के समय काज़ी या मुल्ला की उपस्थिति भी ज़रूरी नहीं है I एक वैध (Valid) विवाह के लिए निम्नलिखित कुछ आवश्यक शर्तें हैं इनमें से कुछ शर्तों का पालन न होने पर विवाह निष्प्रभावी (Void) हो जाता है और कुछ के पूरा न होने पर अनियमित (Irregular) हो जाता है I यह शर्तें निम्नलिखित हैं –

प्रस्ताव और स्वीकृति 

मुस्लिम विवाह के लिए यह आवश्यक है कि विवाह का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से विवाह का प्रस्ताव करे और जब दूसरा पक्षकार उस प्रस्ताव की स्वीकृति दे देता है तभी विवाह पूरा होता है I

  • उपस्थिति (Presence) – प्रस्ताव और स्वीकृति दोनों पक्षकारों या उनके अभिकर्ताओं (जो वकील कहलाते हैं) की उपस्थिति में इस प्रकार होना ज़रूरी है कि दोनों पक्षकार एक-दूसरे के कथन को सुन सकें I

 

  • एक बैठक (One Meeting) – प्रस्ताव और स्वीकृति एक बैठक में पूरी होना ज़रूरी है I जैसे – A और B की उपस्थिति में C कहता है कि मैंने अपना विवाह D से कर लिया है, जो वहाँ मौजूद नहीं है I जब यह समाचार D के पास पहुँचता है (C के वकील के द्वारा नहीं बल्कि किसी अन्य तरह से ) तो D कहती है कि मैंने स्वीकार कर लिया है I इस स्थिति में D की स्वीकृति के समय A और B के मौजूद होते हुए भी विवाह वैध नहीं हुआ I 

 

  • गवाह (Witnesses) – सुन्नी विधि में प्रस्ताव और स्वीकृति 2 पुरुष या 1 पुरुष और 2 स्त्री (गवाहों) की मौजूदगी में होना ज़रूरी है जो स्वस्थ-चित्त और व्यस्क मुसलमान हों I गवाहों की गैर मौजूदगी विवाह को शून्य नहीं बल्कि अनियमित बना देती है I शिया विधि में विवाह के समय गवाहों की मौजूदगी आवश्यक नहीं है और ऐसा विवाह पूरी तरह वैध होता है I

 

  • स्वतंत्र सहमती (Free Consent) – विवाह के पक्षकारों का अपनी स्वतंत्र सहमती से विवाह करना ज़रूरी है और ऐसी सहमती प्रापीड़न, असम्यक असर और कपट से मुक्त होना चाहिए I अगर विवाह के पक्षकार अवयस्क हैं तब उनकी तरफ से उनके विधिक संरक्षक द्वारा अनुमति प्राप्त होनी चाहिए वरना विवाह वैध न होगा I 

 

सक्षम पक्षकार 

विवाह के दोनों पक्षों को विवाह करने के लिए सक्षम होना ज़रूरी है I जो इस प्रकार है – 

  • विवाह की आयु (Age of Marriage) – सामान्य नियम यह है कि विवाह के पक्षकार मुस्लिम विधि के अनुसार व्यस्क हों I मुस्लिम विधि में वयस्कता की आयु 15 वर्ष मानी जाती है I इस नियम का एक अपवाद है कि 15 वर्ष से कम और 7 वर्ष से अधिक आयु के लड़के या लड़की का अभिभावक उसकी तरफ से विवाह की संविदा कर सकता है I 7 वर्ष से कम आयु का विवाह हर हालत में शून्य होता है I विक्षिप्त या पागल का विवाह भी उसके अभिभावक द्वारा संविदा करने पर ही मान्य होता है I अमीर अली का कहना है कि हनफी और शिया दोनों सम्प्रदाय में पुरुषों और स्त्रियों के मामले में 15 वर्ष की आयु पूरी कर लेने पर वयस्कता की पूर्वधारणा कर ली जाती है बशर्ते कि यह साबित करने के लिए कोई साक्ष्य न हो कि वयस्कता इससे पहले प्राप्त कर ली गई है I शिया स्त्री के मामले में वयस्कता मासिक धर्म के साथ शुरू हो जाती है और किसी साक्ष्य के अभाव में यह पूर्वधारणा होती है कि मासिक धर्म 9 या 10 वर्ष की आयु में शुरू हो जाता है I

 

  • वयस्कता का विकल्प (Option of Puberty) – मुल्ला का मत है कि वयस्कता का विकल्प अगर स्त्री द्वारा वयस्कता प्राप्त करते ही तुरंत अथवा शादी का ज्ञान न होने की दशा में शादी की सूचना मिलते ही न किया गया तो यह अधिकार समाप्त हो जाता है I लेकिन पुरुष के लिए यह अधिकार तब तक रहता है जब तक वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विवाह का अनुसमर्थन नहीं कर देता है I उदाहरण – सम्भोग द्वारा या मेहर का भुगतान करके I

 

  • अवयस्कों के विवाह में अभिभावक्ता – अभिभावक की अनुमति के बिना किसी भी अवयस्क का विवाह अमान्य होता है, जब तक कि वयस्कता प्राप्त कर लेने पर उसका अनुसमर्थन न कर दिया जाये I किसी लड़के या लड़की को, जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है, उसे अपनी मर्ज़ी से विवाह करने की स्वतंत्रता होती है I किसी अवयस्क के विवाह की संविदा करने का अधिकार क्रमश: निम्नलिखित व्यक्तियों को प्राप्त है –
  1. पिता
  2. दादा
  3. सगा भाई
  4. सहोदर भाई
  5. सगे भाई का बेटा
  6. सहोदर भाई का बेटा
  7. सगा चाचा
  8. सहोदर चाचा
  9.  सगे चाचा का बेटा
  10. सहोदर चाचा का बेटा I

इन पुरुष संरक्षकों के बाद निम्नलिखित स्त्री और रिश्तेदार संरक्षक में आते हैं – 

  1. मां 
  2. दादी 
  3. नानी 
  4. सगी बहन 
  5. सहोदर बहन  

शिया विधि में केवल पिता और दादा को, चाहे वे जितनी पीढ़ी ऊपर हो, अवयस्क या विक्षिप्त के विवाह की संविदा करने का अधिकार होता है I

 

विधिक अयोग्यता

विधिक अयोग्यता का मतलब यह है कि पक्षकार निषिद्ध संबंधों के भीतर न आते हों, जो विवाह को अवैध बना दें I 

 

  • रक्त संबंध या कराबत – कुछ संबंध ऐसे होते हैं जिनसे परस्पर संबंधित स्त्री-पुरुषों में एक-दूसरे से विवाह नहीं किया जा सकता I ऐसा विवाह शून्य (Void) होता है I जैसे – कोई पुरुष निम्नलिखित महिलायों से विवाह नहीं कर सकता –
  1. अपनी मां या दादी, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,
  2. अपनी पुत्री या पौत्री, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,
  3. अपनी बहन चाहे सगी हो या सहोदरा हो या एकोदरा हो,
  4. भाई की पुत्री या पौत्री, चाहे कितनी पीढ़ी नीचे हो,
  5. अपनी या अपने पिता या माता की बहन तथा दादा-दादी के बहने, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हों I

 

  • विवाह संबंध या मुशारत – विवाह संबंध के कारण निषिद्ध स्त्री से विवाह शून्य होता है I इसमें निम्नलिखित लोग आते हैं – 
  1. पत्नी की माता या दादी, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,
  2. पत्नी की पुत्री या पौत्री, चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो,
  3. पिता या पितामह की पत्नी, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,
  4. पुत्र, पौत्र या नाती की पत्नी, चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो I

 

  • धात्रेय संबंध या रिजा – जब 2 वर्ष से कम आयु के किसी शिशु ने अपनी मां के अलावा किसी अन्य स्त्री का दूध पिया है, तो उस शिशु और उस स्त्री के बीच धात्रेय संबंध उत्पन्न हो जाता है और वह स्त्री उस शिशु की धाय मां बन जाती है I हालाँकि धात्रेय संबंधियों का जन्म एक ही माता-पिता से नहीं होता है I फिर भी वह विवाह के प्रयोजन के लिए रक्त संबंधी समझे जाते हैं I जैसे – कोई व्यक्ति सिर्फ अपनी सगी बहन से ही नहीं बल्कि धात्रेय बहन से भी विवाह नहीं कर सकता है I लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं I

 

  • अवैध संयोग – इसका अर्थ है कि एक ही समय में इस प्रकार परस्पर संबंधित दो स्त्रियों से विवाह करना कि यदि उनमें से एक पुरुष होता तो उनके बीच विवाह अवैध होता I जैसे – दो बहनों से एक साथ विवाह  I  इसलिए कोई मुसलमान अपनी पत्नी के जीवन काल में उसकी बहन से  मान्य विवाह नहीं कर सकता, लेकिन पहली पत्नी को तलाक देने या उसकी मृत्यु हो जाने से यह  अवरोध दूर हो सकता है I सुन्नी विधि के अंतर्गत ऐसा विवाह अनियमित होता है लेकिन उससे उत्पन्न संतान वैध होती है I शिया विधि के अंतर्गत अवैध संयोग के सिद्धांत के उल्लंघन में किया गया विवाह शून्य होता है I

 

  • पांचवी स्त्री से विवाह –  दूसरा अवैध संयोग यह है कि एक व्यक्ति एक समय में 4 से अधिक पत्नियां नहीं रख सकता I पांचवी  पत्नी से विवाह अनियमित होगा I किसी एक पत्नी को तलाक देकर इसे नियमित किया जा सकता है I इस्लाम से पहले एक व्यक्ति कितनी भी स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था लेकिन पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने विवाह इस रीति को चार पत्नियों तक सीमित कर दिया और एक पत्नी से  विवाह को आदर्श  विवाह बताया I 

 

  • उचित साक्षियों की गैर-मौजूदगी – सुन्नी विधि के अनुसार यह आवश्यक है कि कम से कम दो गवाह विवाह के समय यह साबित करने के लिए ज़रुर मौजूद रहें कि पक्षकारों के बीच विवाह की संविदा उचित रूप से संपन्न हुई थी I गवाहों की गैर-मौजूदगी में किया गया विवाह अनियमित होता है, शून्य नहीं I विवाह के समय कम से कम 2  पुरुष अथवा एक पुरुष और दो स्त्री गवाहों की मौजूदगी आवश्यक होती है I लेकिन अगर पुरुष गवाह एक भी नहीं है तो विवाह अनियमित ही होगा, भले ही विवाह के समय 4 या 4 से अधिक महिला गवा मौजूद रहें I शिया विधि में विवाह के समय गवाहों की उपस्थिति जरूरी नहीं होती है I

 

  • धर्म में भिन्नता – मुस्लिम विधि में मुख्यतया दो सम्प्रदाय हैं – शिया और सुन्नी I सुन्नी सम्प्रदाय 4 उप-सम्प्रदाय में विभाजित है और शिया सम्प्रदाय 3 उप-सम्प्रदाय में I सम्प्रदाय या उप-सम्प्रदाय के आधार पर मुस्लिम विधि में विवाह पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है I कोई भी शिया पुरुष सुन्नी महिला से विवाह कर सकता है और सुन्नी पुरुष शिया महिला से I हनफी विधि के अंतर्गत पुरुष ‘किताबिया ‘ महिला के साथ विवाह कर सकता है I ‘किताबिया’ महिला ऐसी महिला को कहा जाता है जो ऐसे धर्म में निष्ठा रखती है, जिसमें दैव ग्रन्थ हो I ईसाई और यहूदी धर्म की अनुयायी महिलाएं ‘किताबिया’ महिलाएं होती हैं I लेकिन स्त्री किसी ऐसे पुरुष से विवाह नहीं कर सकती जो मुसलमान न हो, चाहे वह ‘किताबी’ हो या नहीं I लेकिन विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अंतर्गत 2 विभिन्न धर्मों में आस्था रखने वाले पुरुष और स्त्री के बीच विवाह हो सकता है I ऐसे विवाह को मैरेज रजिस्ट्रार समक्ष संपन्न किया गया हो I इस विवाह के लिए और भी बहुत सी शर्तें हैं I

 

  • इद्दत की अवधि बिताती हुई स्त्री – इद्दत वह अवधि है जिसमें जिस स्त्री के विवाह का, पति की मृत्यु या तलाक द्वारा, विच्छेद हो गया हो, उसे एकांत में रहना और दूसरे पुरुष से विवाह न करना (निश्चित अवधि तक) अनिवार्य है I इस निश्चित अवधि को ही ‘इद्दत’ कहा जाता है I इसलिए इद्दत बिताती हुई स्त्री से किया गया विवाह अनियमित होता है I       

  

  • दूसरे की पत्नी से विवाह या विवाहित स्त्री द्वारा दूसरे पुरुष से विवाह – मुस्लिम विधि में निषिद्ध है कि जब तक पहला विवाह कायम है तब तक विवाहित स्त्री दोबारा विवाह नहीं कर सकती I इस नियम के विरुद्ध विवाह करने वाली मुस्लिम स्त्री भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अंतर्गत दंडनीय होगी और ऐसे विवाह की संतान अवैध होगी I कोई मुस्लिम पुरुष अन्य पुरुष की पत्नी (अगर विवाह कायम है) के साथ विवाह नहीं कर सकता I इस नियम के विरुद्ध विवाह करने वाला मुस्लिम पुरुष भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अंतर्गत दंड का भागी है I

 

  • मुस्लिम स्त्री द्वारा गैर मुस्लिम पुरुष से विवाह – मुस्लिम स्त्री का गैर-मुस्लिम पुरुष से विवाह चाहे वह ईसाई, यहूदी, मूर्तिपूजक या अग्निपूजक हो, मुल्ला के अनुसार, सुन्नी विधि के अंतर्गत ऐसा विवाह अनियमित होता है I लेकिन फैजी के अनुसार शून्य होता है I शिया विधि के अंतर्गत ऐसा विवाह शून्य ही होता है I

 

  • गर्भवती स्त्री से विवाह – अमीर अली के अनुसार “पूर्व पति से गर्भवती हुई स्त्री से, गर्भधारण की स्थिति में विवाह करना अवैध है I”  

 

  • तलाक़ का निषेध – जब तलाक के तीन बार उच्चारण से विवाह का विच्छेद हो जाए तो फिर उन्हीं पक्षकारों का पुनर्विवाह निषिद्ध है I लेकिन अगर स्त्री दूसरे व्यक्ति के साथ विवाह करती है और दूसरा विवाह पूर्ण-अवस्था को प्राप्त हो जाता है या दूसरे पति की मृत्यु हो जाती है या दूसरा पति तलाक दे देता है, तो ऐसी स्त्री अपने पूर्व पति के साथ इद्दत का पालन करने के बाद पुनर्विवाह कर सकती है I

Filed Under: क़ानून / LAW, मुस्लिम विधि / Muslim Law Tagged With: मुस्लिम विवाह, मुस्लिम विवाह की आवश्यक शर्तें

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