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भारतीय संविधान / Indian Constitution

मूल अधिकारों के संदर्भ में कौन-कौन राज्य शब्द में शामिल है ?

July 5, 2021 by Mohd Mohsin Leave a Comment

परिचय 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि भारत के संविधान के भाग-3 में नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं I यह मूल अधिकार नागरिकों और विदेशियों दोनों को प्राप्त हैं I लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि यह मूल अधिकार किसके विरुद्ध उपलब्ध हैं I अधिकतर लोगों को यह तो पता होता है कि संविधान ने हमें  मूल अधिकार प्रदान किये हैं लेकिन उन्हें इस बात की जानकारी नहीं होती है कि यह मूल अधिकार हमें किसके विरुद्ध उपलब्ध हैं I

मूल अधिकार किसके विरुद्ध उपलब्ध हैं ?

भारतीय संविधान में भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकार राज्य-शक्ति के विरुद्ध गारंटी किये गये हैं न कि सामान्य व्यक्तियों के अवैध कृत्यों के विरुद्ध I सामान्य व्यक्तियों के अनुचित कृत्यों के विरुद्ध साधारण विधि में अनेक उपचार उपलब्ध हैं I कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उतना असहाय और अशक्त महसूस नहीं करता जितना कि राज्य शक्ति के विरुद्ध I जब यह पता चल जाता है कि मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करते हैं तो प्रशन यह उठता है कि “राज्य “ क्या है और “राज्य” कौन है ? इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 12 में किया गया है I

 

“राज्य” शब्द की परिभाषा (अनुच्छेद 12)

संविधान के भाग 3 में दिए गये मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं I अनुच्छेद 12 संविधान के भाग – 3 के प्रयोजन के लिए ‘राज्य’ शब्द की परिभाषा करता है I यह परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेद में प्रयुक्त ‘राज्य’ शब्द पर लागू नहीं होती है I अनुच्छेद 12 के अनुसार ‘राज्य’ शब्द के अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हैं – 

  • भारत सरकार एवं संसद
  • राज्य सरकार एवं विधानमंडल
  • सभी स्थानीय प्राधिकारी
  • अन्य प्राधिकारी

 

भारत सरकार एवं संसद, राज्य सरकार एवं विधान-मंडल

भारत की सरकार एवं संसद, राज्य सरकार एवं विधानमंडल इन शब्दों से तो यह स्पष्ट है कि भारत की केंद्र सरकार तथा अलग-अलग राज्यों की राज्य सरकार अनुच्छेद 12 के अंतर्गत “राज्य”  है। लेकिन अन्य स्थानीय प्राधिकारी तथा अन्य प्राधिकारी इन दो शब्दों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि “राज्य” किसे माना जाए।

लेकिन भारत के उच्चतम न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर उपरोक्त दोनों शब्दावलियों (सभी स्थानीय प्राधिकारी, अन्य प्राधिकारी) का निर्वचन किया है और यह बताया कि किसे “राज्य “ माना जायेगा I 

 

स्थानीय प्राधिकारी

अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त ‘स्थानीय प्राधिकारी’ शब्द का अर्थ है जिन्हें विधि, उप-विधि, आदेश, अधिसूचना आदि के निर्माण करने या जारी करने की शक्ति होती है और साथ ही साथ प्रवर्तित करने की भी शक्ति होती है I यदि किसी अधिकारी को ऐसी शक्ति प्राप्त है तो वो ‘राज्य’ की परिभाषा के अंतर्गत आता है I ‘स्थानीय प्राधिकारी’ के अंतर्गत नगरपालिका, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, ग्रामपंचायत, इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट, माइनिंग सेटेलमेंट बोर्ड आदि संस्थाएं आती हैं I

मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी

के मामले में शहर की नगरपालिका ने थोक विक्रेताओं के ऊपर निश्चित दर से बिक्री कर लगाया I नगर पालिका को एक उपविधि के अंतर्गत ऐसा प्राधिकार प्राप्त था I उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका को अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त “राज्य” शब्द के अंतर्गत राज्य माना और यह निर्णय दिया कि उसका कर लगाने का आदेश अवैध था, क्योंकि वह अनुच्छेद 19(1)(g) में दिए गए मूल अधिकार का अतिक्रमण करता था I 

 

अन्य प्राधिकारी

अनुच्छेद 12 में कुछ प्राधिकारियों का उल्लेख करने के बाद ‘अन्य प्राधिकारी’ पदावली का प्रयोग किया गया है I प्रारम्भ में कई उच्च न्यायालयों ने इसकी बड़ी समुचित व्याख्या की और मत व्यक्त किया कि ‘अन्य प्राधिकारी’ पदावली में उपर वर्णित प्राधिकारियों की तरह के अन्य प्राधिकारी शामिल हैं I

मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांताबाई

के मामले में उक्त निर्वचन के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘अन्य प्राधिकारी’ पदावली में केवल वो प्राधिकारी ही शामिल किये जा सकते हैं जो शासकीय या संप्रभु शक्ति (Sovereign Power) का प्रयोग करते हैं I अत: इस परिभाषा के आधार प्राकृतिक और विधिक व्यक्ति जैसे कि विश्वविद्यालय या कंपनी आदि इस पदावली के अंतर्गत ‘राज्य’ नहीं माने जा सकते I

उज्जमा बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस संकुचित निर्वचन को मानने से इंकार कर दिया और यह निर्णय दिया कि प्राधिकारियों की ऐसी कोई सामान्य श्रेणी नहीं है जो अनुच्छेद 12 में उल्लिखित शब्दावलियों के अंतर्गत आते हों I 

इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड राजस्थान बनाम मदनलाल

के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त ‘अन्य प्राधिकारी’ शब्द में वे सभी प्राधिकारी आते हैं जो संविधान या किसी परिनियम द्वारा स्थापित किये जाते हैं और जिन्हें विधि, उप विधि आदि निर्मित करने की शक्ति प्राप्त होती है I यह ज़रूरी नहीं है कि ऐसे प्राधिकारी शासकीय या संप्रभु शक्ति का प्रयोग करते हों I इस निर्वचन के अनुसार ‘अन्य प्राधिकारी’ शब्द के अंतर्गत इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड कोचीन, देवासन बोर्ड, को-ऑपरेटिव सोसाइटी जैसी संस्थाएं शामिल होंगी I जिन्हें को-ऑपरेटिव सोसाइटी एक्ट 1911 के अंतर्गत उप विधियाँ बनाने की शक्ति प्राप्त है I

अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब

के मामले में उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय का अनुसरण करते हुए यह निर्णय दिया कि Societies Registration Act, 1898 के अधीन रजिस्टर्ड एक सोसाइटी अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त “अन्य प्राधिकारी” शब्दावली के अंतर्गत “राज्य” है I सोसाइटी का गठन राज्य द्वारा निर्धारित किया जाता है I उसका समस्त व्यय केंद्र सरकार वहन करती है I सोसाइटी द्वारा निर्मित नियमों को केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति से बनाया जाता है I सोसाइटी सरकार के सभी निर्देशों को मानने के लिए बाध्य है I इसके सदस्यों की नियुक्ति और पदच्युति की शक्ति केंद्र सरकार को प्राप्त है I इस प्रकार केंद्र सरकार का सोसाइटी पर पूरा नियंत्रण है I 

अत: आवश्यक कसौटी यह नहीं है कि निगम या निकाय का सृजन कैसे किया जाता है बल्कि आवश्यक कसौटी यह है कि उसकी स्थापना का प्रयोजन क्या है I अगर कोई निकाय राज्य का अभिकर्ता है तो वह अनुच्छेद 12 के अंतर्गत “राज्य” माना जायेगा I  

न्यायालयों के निर्णयों के अनुसार ‘अन्य प्राधिकारी’ में निम्नलिखित भी शामिल हैं –

जीवन बीमा निगम, तेल और प्राकृतिक गैस आयोग तथा कारखाना वित्त निगम,सरकारी कंपनी, पंजीकृत सोसाइटी, इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथॉरिटी, भारत पेट्रोलियम निगम, उत्तर प्रदेश को-ऑपरेटिव बैंक, इंडियन कौंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च, स्कूल जो 95% अनुदान सरकार से प्राप्त करते हैं,

 

न्यायालयों के निर्णयों के अनुसार ‘अन्य प्राधिकारी’ में निम्नलिखित शामिल नहीं  हैं –

एन.सी.ई.आर.टी (NCERT), गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक विद्यालय संविधान के अनुच्छेद 30(1) के अधीन उनकी स्वायत्ता के कारण, 

 

क्या न्यायपालिका ‘राज्य’ शब्द के अंतर्गत आती है ?

अमेरिका में यह सिद्धांत बड़ी अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है कि मूल अधिकार न्यायपालिका के कार्यों के विरुद्ध भी प्राप्त हैं I यदि न्यायालयों के किसी आदेश के फलस्वरूप किसी व्यक्ति के मूल अधिकार का उल्लंघन होता हैं तो ऐसा आदेश अवैध घोषित किया जा सकता है I (वर्जीनिया बनाम राइब्स)

 

नरेश बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र

के मामले में यह प्रश्न पहली बार उच्चतम न्यायालय के सामने आया था I न्यायालय ने इस विषय पर कोई निश्चयात्मक मत व्यक्त नहीं किया उसने केवल यह कहा कि अगर यह मान भी लिया जाए कि न्यायपालिका ‘राज्य’ है तो भी उसके आदेशों के विरुद्ध अनुच्छेद 32 के अंतर्गत रिट जारी नहीं किये जा सकते हैं क्यूँकि ऐसे आदेशों से नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है I

एम.एच.सिरवई का मत

यह है कि न्यायपालिका ‘राज्य’ शब्द की परिभाषा के अंतर्गत आती है और एक न्यायाधीश, न्यायाधीश के रूप में उच्चतम न्यायालय में रिट अधिकारिता के अधीन कार्य करता है, उसके आदेशों के विरुद्ध रिट जारी किये जा सकते हैं I सरकार के अन्य अंगों की तरह न्यायपालिका की शक्ति भी संविधान के आदेशात्मक उपबंधों द्वारा परिसीमित है और इन्हें नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करने की शक्ति प्रदान नहीं की गई हैं I

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भारतीय संविधान की प्रकृति

June 25, 2021 by Mohd Mohsin Leave a Comment

संविधान की प्रकृति

संविधानवेत्ताओं ने संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया है – 1- संघात्मक  2- एकात्मक 

संघात्मक संविधान

संघात्मक संविधान वो संविधान होता है जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है और दोनों सरकारें अपने- अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं I

एकात्मक संविधान

एकात्मक संविधान वो संविधान होता है जिसके अंतर्गत सारी शक्तियां एक ही सरकार में निहित होती हैं I जो केंद्र सरकार होती है I राज्यों को केंद्र सरकार के अधीन रहना पड़ता है I

भारतीय संविधान की प्रकृति के बारे में विधिशास्त्रियों में काफी मतभेद रहा है I संविधान निर्माताओं के अनुसार भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान है I संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि “मेरे इस विचार से सभी सहमत हैं कि हालाँकि हमारे संविधान में ऐसे उपबंधों का समावेश है जो केंद्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देते हैं जिसमे राज्यों की स्वतंत्रता समाप्त सी हो जाती है, फिर भी संघात्मक संविधान है I कोई भी संविधान संघात्मक है या नहीं इसके लिए हमें यह जानना चाहिए कि उसके आवश्यक तत्व क्या हैं I जिस संविधान में निम्नलिखित आवश्यक तत्व पाए जाते हैं I उसे संघात्मक संविधान कहा जाता है I

लेकिन कुछ संविधानवेत्ताओं को भारतीय संविधान को संघात्मक मानने में आपत्ति है जिसमें से प्रमुख हैं – 1- प्रोफेसर व्हियर 2- प्रोफेसर जेनिंग्स 

प्रोफेसर व्हियर के अनुसार संघीय सिद्धांत 

इनके अनुसार संघीय सिद्धांत के अंतर्गत संघ और प्रांतों में शक्तियों का विभाजन होता है I यह विभाजन ऐसी रीति से किया जाता है जिसमें प्रत्येक अपने-अपने क्षेत्र में पूरी तरह स्वतंत्र हो और एक-दूसरे के सहयोगी भी हों, न की एक दूसरे के अधीन हों I

प्रोफेसर व्हियर अपनी उपयुक्त परिभाषा देने के बाद संसार के सभी संविधानों को खुद इस कसौटी पर जांचते हैं I वह कहते हैं कि क्या हमें संविधान के उन रूपों तक सीमित रहना चाहिए जिसमें संघीय सिद्धांत पूरी तरह से एवं बिना किसी अपवाद के लागू होते हैं I ऐसा कहना तर्कसंगत नहीं होगा I इनके अनुसार संघात्मक संविधान की मुख्य कसौटी ये है कि हमें यह देखना चाहिए कि किसी संविधान में संघात्मक सिद्धांत प्रधान हैं या गौण I यदि किसी संविधान में ऐसे उपबंध मौजूद हैं जिसमें संघीय सिद्धांत गौण हो जाएँ तो वो संघात्मक संविधान नहीं रह जाता I 

संघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व

शक्तियों का विभाजन

केंद्रीय और प्रन्तीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन संघात्मक संविधान का एक आवश्यक तत्व है I यह विभाजन संविधान द्वारा ही किया जाता है I प्रत्येक सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र होती हैं और एक-दूसरे अधिकारों एवं शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं कर सकती I

संविधान की सर्वोपारिता

संविधान सरकार के सभी अंगों – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का स्रोत होता है I संविधान उनके अधिकार-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है जिसके अंदर रहकर वे कार्य करते हैं I संघीय व्यवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है I 

लिखित संविधान

संघात्मक संविधान आवश्यक रूप से लिखित होता है I संविधान के लिखित होने से केंद्रीय और प्रांतीय दोनों सरकारों को अपने-अपने अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से पता रहता है I

संविधान की अपरिवर्तनशीलता

लिखित संविधान स्वभावता: अपरिवर्तनशील होता है I देश की सर्वोच्च विधि का अपरिवर्तनशील होना ज़रूरी भी है I जिस संविधान में संशोधन की प्रक्रिया कठिन होती है उसे अपरिवर्तनशील संविधान कहा जाता है और जिसमें संशोधन आसानी से किये जा सकते हैं उसे परिवर्तनशील संविधान कहा जाता है I अपरिवर्तनशील का मतलब सिर्फ यही है कि संविधान में वही संशोधन किये जा सकें जो समय और परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हो I

न्यायपालिका का प्राधिकार

संघीय संविधान में शक्तियों का विभाजन रहता है I इसलिए यह संभव है कि विभिन्न सरकारें संविधान के उपबंधों का अपने-अपने पक्ष में निर्वचन कर सकती हैं I ऐसी दशा में सही-सही निर्वचन करने का काम न्यायपालिका को दिया गया है I

संघात्मक संविधान के विरुद्ध तर्क

जिनको भारतीय संविधान को संघात्मक कहने में आपत्ति है, वो निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं –

राज्यपाल की नियुक्ति

राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है (अनुच्छेद 155, 156) I राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बना रहता है I वो राज्य विधान मंडल के प्रति नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है I राज्य विधान मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना अधिनियम का रूप नहीं ले सकता I कुछ विषयों से संबंधित विधेयकों को वो राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज सकता है [अनुच्छेद 201, 288(2), 304(b)]

राष्ट्रीय हित में राज्य-सूची के विषयों पर विधि बनाने की संसद की शक्ति

अनुच्छेद 249 कहता है कि यदि राज्य सभा अपने दो-तिहाई बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह ज़रूरी हो गया है कि संसद राज्य-सूची के विषयों पर विधि बनाये तो संसद को उसपर विधि बनाने विधिसंगत होगा I इस व्यवस्था पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए I समाज के विकास और उसकी परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्रीय विषयों का स्वरुप बदलकर राष्ट्रीय महत्व का हो सकता है और उस समय उस विषय पर ऐसी विधि की आवश्यकता होगी जो देश भर में लागू हो I

नए राज्यों के निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की संसद की शक्ति

अनुच्छेद 3 संसद को नए राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की शक्ति देता है I इस प्रकार राज्यों का अस्तित्व ही केंद्र की इच्छा पर निर्भर है I इस व्यवस्था से संघीय सिद्धांत पर बहुत बड़ा आघात पहुँचता है I

आपात-उपबंध

अनुच्छेद 352 यह कहता है कि अगर राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि युद्ध, बाहरी आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह से देश की सुरक्षा संकट में है तो वो आपात काल की उद्घोषणा कर सकता है I अनुच्छेद 356 यह कहता है कि अगर राष्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमे उस राज्य का सांविधानिक तंत्र विफल हो गया है तो वो आपात काल की उद्घोषणा कर सकता है I ऐसी उद्घोषणा हो जाने पर राज्य सरकार को बर्खास्त कर विधान सभा को भंग कर दिया जाता है और राज्य प्रशासन केंद्र सरकार के अधीन आ जाता है I संसद को राज्य सूची की विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है I अनुच्छेद 360 यह कहता है कि जब भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वो इस आशय की उद्घोषणा कर सकता है I

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ का मामला

उच्चतम न्यायालय का बहुमत से यह अभिमत है कि भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान है और “परिसंघवाद” संविधान का आधारभूत ढांचा है I” न्यायमूर्ति श्री सावंत और कुलदीप सिंह ने यह कहा कि भारतीय संविधान में परिसंघवाद की ही प्रबलता है और इसका किसी तरह से ह्रास नहीं हुआ है I यह तथ्य कि आपातकालीन परिस्थितियों में राज्यों की शक्ति पर केंद्र द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है इससे संविधान की संघात्मक प्रकृति के तत्व नष्ट नहीं होते हैं I यह हमारे संविधान के सामान्य लक्षण नहीं हैं यह केवल अपवादस्वरुप हैं जिनका प्रयोग केवल विशेष परिस्थितियों में किया जाता है I अपवाद नियम नहीं होते हैं I

निष्कर्ष

निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि भारत का संविधान न तो विशुद्ध संघात्मक ही है और न ही विशुद्ध एकात्मक I बल्कि यह दोनों का सम्मिश्रण है I यह अपने ढंग का अनोखा परिसंघ है I यह इस सिद्धांत को मान्यता प्रदान करता है कि संघीय सिद्धांत की अपेक्षा देश का हित सर्वोपरि है I

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भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं – Salient Features of Indian Constitution

June 16, 2021 by Mohd Mohsin Leave a Comment

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम हमारे सामने यह था कि हमें एक संविधान की रचना करना थी I जिसके माध्यम से हम उन उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें I जिसके लिए हमनें स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी I यह एक कठिन काम था I हमारे सामने बहुत सी कठिनाइयाँ थीं I इस काम के लिए संविधान सभा का गठन किया गया I जिसकी पहली  बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई I इस संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन के निरंतर प्रयास और अथक परिश्रम के बाद 26 नवंबर 1949 को संविधान निर्माण का काम पूरा कर दिया I भारतीय संविधान की बहुत सी प्रमुख विशेषताएं हैं I जिनकी वजह से हमारा संविधान विश्व के अच्छे संविधानों में गिना जाता है I

विशालतम संविधान

सर आईवर जेनिंग्स ने भारतीय संविधान को विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान कहा है I जेनिंग्स का यह कहना बिल्कुल ठीक ही है क्योंकि मूल संविधान में कुल 395 अनुच्छेद थे जो 22 भागों में विभाजित थे और इसमें 8 अनुसूचियां थी I 1951 से कई अनुच्छेदों को संविधान में जोड़ा गया है और कई अनुच्छेदों को संविधान से हटाया गया है I हालांकि संविधान में अंतिम अनुच्छेद की संख्या अभी भी 395 है लेकिन संविधान में कुल 448 अनुच्छेद हैं जो 25 भागों में विभाजित हैं और इसमें 12 अनुसूचियां हैं I संविधान की इस  विशालता के निम्नलिखित कारण हैं –

  • संविधान निर्माताओं ने विश्व के सभी संविधानों से अनुभव प्राप्त किया था और उन्हें उनके संचालन में हुई अनेक कठिनाइयों के बारे में भी ज्ञान था I संविधान निर्माताओं ने इससे लाभ उठाया और उन्होंने विश्व के सभी संविधानों   की अच्छी बातों को भारतीय संविधान में शामिल किया जिससे कि भविष्य में संविधान के संचालन में कठिनाइयां ना उत्पन्न हों I इस प्रकार अमेरिका के संविधान से मूल अधिकार, ब्रिटेन के संविधान से संसदीय प्रणाली, आयरलैंड के संविधान से राज्य के नीति निदेशक तत्व और जर्मनी के संविधान तथा भारत सरकार अधिनियम, 1935 से आपात-उपबंधों को लेकर भारतीय संविधान का निर्माण किया गया I

 

  • भारतीय परिसंघ अनेक राज्यों से मिलकर बना है I इन प्रांतों की शासन व्यवस्था आदि विषयों  के लिए भी नियमों का होना आवश्यक था I अमेरिका में राज्यों के संविधान अलग हैं I संघीय संविधान में राज्यों से संबंधित कोई व्यवस्था नहीं दी गई है I जबकि भारत में प्रांतों का गठन और उनकी शक्तियों आदि से संबंधित उपबंध संघीय संविधान में ही दिए गए हैं I इस प्रकार केंद्रीय तथा प्रांतीय दोनों सरकारों के गठन एवं उनकी शक्तियों से संबंधित उपबंध एक ही संविधान में होने के कारण भी संविधान विशाल हो गया है I

 

  • भौगोलिक दृष्टि से देश की विशालता तथा यहां की विशेष समस्याओं ने भी संविधान को बड़ा बनाने में योगदान दिया है I भारत अनेक भाषा बोलने वाले, अनेक धर्म को मानने वाले तथा विशेष परिस्थितियों में रहने वाले लोगों जैसे- अनुसूचित एवं पिछड़ी जातियों का देश है I यह ऐसे विषय हैं जिनसे संबंधित उपबंधों को संविधान में शामिल किया जाना आवश्यक था I

 

  • मूल अधिकारों के अतिरिक्त संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का विस्तृत वर्णन है I हालांकि इन अधिकारों के उल्लंघन होने पर नागरिकों को न्यायालय में वाद चलाने का अधिकार नहीं दिया गया है I लेकिन फिर भी प्रस्तावना में निहित एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दृष्टि से संविधान निर्माताओं ने इसको  संविधान में शामिल करना उचित माना I इसके अतिरिक्त इसमें न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, निर्वाचन आयोग, राष्ट्रभाषा आयोग आदि अनेक स्वाधीन संस्थाओं के संगठन एवं कार्य पद्धति से संबंधित विस्तृत एवं स्पष्ट उपबंध दिए गए हैं I इस कारण भी हमारा संविधान इतना विशाल हो गया है I

प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार संविधान का उद्देश्य भारत में प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना करना है I प्रस्तावना में कहा गया है – “ हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए –  दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं I”

  • प्रभुत्वसंपन्न राज्य – प्रभुत्वसंपन्न राज्य उसे कहते हैं जो बाहरी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त हो और अपनी आंतरिक तथा विदेशी नीतियों को स्वयं निर्धारित करता हो I इस संबंध में भारत पूरी तरह स्वतंत्र है I भारत की सरकार आंतरिक तथा बाह्य मामलों में अपनी इच्छा अनुसार आचरण करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है I यह संप्रभुता किसी विदेशी सत्ता में नहीं बल्कि भारत की जनता में निहित है I

 

  • समाजवाद – समाजवाद शब्द भी 42 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में जोड़ा गया है I समाजवाद की उपधारणा  प्रस्तावना की “आर्थिक न्याय” शब्दावली में निहित है I इस संशोधन द्वारा इस उपधारणा को एक निश्चित दिशा प्रदान की गई है I जिसके लिए हमारी वर्तमान सरकार कटिबद्ध है I समाजवाद शब्द की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है I इस शब्द का तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन या तो राज्य के हाथ में होते हैं या उसके नियंत्रण में होते हैं I लेकिन भारतीय समाजवाद एक अनोखा समाजवाद है I यह मिश्रित अर्थव्यवस्था पर बल देता है I जहां व्यक्तिगत गतिविधि को भी बराबर महत्व दिया गया है I

 

  • पंथ-निरपेक्ष – पंथ-निरपेक्ष शब्दावली को संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया है I “पंथ-निरपेक्ष” का तात्पर्य ऐसे राष्ट्र से है जो किसी विशेष धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करता है बल्कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है I पंथनिरपेक्षता की  उपधारणा संविधान की “विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता” शब्दावली में विवक्षित है I 42 वें संशोधन द्वारा इसे स्पष्ट कर दिया गया है हालांकि संविधान में पंथ-निरपेक्ष राज्य शब्दों को स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं किया गया है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि हमारे संविधान-निर्माता ऐसा राज्य स्थापित करना चाहते थे I इसलिए ही संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 तक के उपबंध शामिल किए गए हैं I

 

  • लोकतंत्रात्मक – लोकतंत्रात्मक शब्द का तात्पर्य ऐसी सरकार से है जिसका पूरा प्राधिकार जनता में नहीं होता है और जो जनता के लिए तथा जनता द्वारा स्थापित की जाती है I देश का प्रशासन सीधे जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है और यह प्रतिनिधि अपने प्रशासकीय कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं I प्रत्येक 5 वर्ष के बाद जनता अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करती है I इसी उद्देश्य के लिए संविधान प्रत्येक व्यस्त नागरिक को मताधिकार प्रदान करता है I

 

  • गणतंत्र  –  इस शब्द का मतलब ऐसे राज्य से है जहाँ का मुखिया या राजाध्यक्ष वंशानुगत प्रमुख नहीं होता है I

संसदीय ढंग की सरकार

संघात्मक संविधान के अंतर्गत मुख्यतः दो प्रकार की सरकारों की स्थापना की जा सकती है –   1- संसदीय प्रणाली  2- अध्यक्षात्मक प्रणाली I 

  • संसदीय प्रणाली – संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति कार्यपालिका का नाम-मात्र प्रधान होता है और वास्तविक कार्यपालिका शक्ति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों में, जिसे मंत्रि-परिषद कहते हैं, निहित होती है I मंत्रि-परिषद का प्रधान प्रधानमंत्री होता है I मंत्रि-परिषद सामूहिक रुप से संसद के प्रति उत्तरदायी होती है I हालांकि संविधान के अनुसार समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के हाथों में निहित है लेकिन वह उसका प्रयोग मंत्रि-परिषद की सलाह से ही करता है I सरकार का यह स्वरूप इंग्लैंड की सरकार के समान है I  

 

  • अध्यक्षात्मक प्रणाली – अमेरिका की सरकार अध्यक्षात्मक है I वहां का राष्ट्रपति कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान होता है अर्थात समस्त कार्यकारिणी शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है I राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधे जनता द्वारा किया जाता है I उसकी पदावधि 4 वर्ष की होती है I वह अपने मंत्रि-मंडल के सदस्यों को नियुक्त करता है और उन्हें जब चाहे पद से हटा सकता है I मंत्रि-मंडल के सदस्य विधान-मंडल के सदस्य नहीं होते हैं I 

मूल अधिकार

भारतीय संविधान के भाग 3 में नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा की गई है I लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में मूल अधिकारों की घोषणा संविधान की एक मुख्य विशेषता होती है I वास्तव में लोकतंत्र का आधार ही जनता के अधिकारों का संरक्षण है I व्यक्ति के विकास के लिए जिन अधिकारों का प्राप्त होना आवश्यक है उन्हें मूल अधिकार कहते हैं I इन अधिकारों को संविधान में शामिल करने की प्रेरणा हमें अमेरिका के संविधान से मिली है I यह अधिकार राज्य की विधायिका और कार्यपालिका शक्ति पर निर्बन्धन स्वरूप है I संविधान राज्य को ऐसे क़ानून बनाने को मना करता है जिनसे नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है I यदि राज्य ऐसे क़ानून बनाता है तो उन्हें न्यायपालिका उस क़ानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है I संविधान में केवल अधिकारों की घोषणा मात्र का कोई महत्व नहीं होता है जब तक कि उनकी संरक्षा के लिए उपाय ना दिए जाएं I यह उपाय ही हैं जो अधिकारों को वास्तविक बनाते हैं I हालांकि यह मूल अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है I इन अधिकारों पर आवश्यकता पड़ने पर सार्वजनिक हित में निर्बन्धन लगाए जा सकते हैं I भारतीय संविधान में निम्नलिखित मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं – 

  • समता का अधिकार (अनुच्छेद 14 – 18)
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 – 22) 
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 – 24)
  • धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 – 28) 
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 – 30) 
  • संविधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32 – 35) 

राज्य के नीति-निदेशक तत्व

भारतीय संविधान के भाग 4 में कुछ ऐसे निदेशों का उल्लेख है जिन्हें पूरा करना राज्य का पवित्रतम कर्तव्य माना गया है I उन्हें राज्य के नीति निदेशक तत्व कहा जाता है I नीति-निदेशक तत्वों को भारतीय संविधान में शामिल करने की प्रेरणा आयरलैंड के संविधान से मिली है Iराज्य के नीति निदेशक तत्व विधान मंडल तथा कार्यकारिणी के पथ प्रदर्शन के लिए संविधान में शामिल किए गए हैं I राज्य इन्हीं नीति निदेशक तत्वों का पालन करके भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कल्पित एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर सकता है I लेकिन इन नीति-निदेशक तत्वों के द्वारा नागरिकों को कोई विधिक अधिकार नहीं दिया गया है जबकि मूल अधिकारों को यह श्रेय प्राप्त है I दूसरे शब्दों में यदि राज्य इन लक्ष्यों को पूरा करने में असफल होता है या उसे पूरा करने का प्रयास नहीं करता है तो किसी भी नागरिक यह अधिकार नहीं है कि वह राज्यों द्वारा उनके कार्यान्वयन के लिए न्यायालयों से आदेश प्राप्त कर सकें I संविधान के 25 वें और 42 वें संविधान संशोधनों द्वारा राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के महत्व को और अधिक बढ़ा दिया गया है I उन्हें मूल अधिकारों पर  सर्वोच्चता प्रदान कर दी गई है I अब नीति निदेशक तत्वों को कार्यान्वित करने वाली विधियों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह अनुच्छेद 14 और 19 में प्रदत्त मूल अधिकारों का अतिक्रमण करती हैं I

परिवर्तनशीलता और अपरिवर्तनशीलता का अनोखा सम्मिश्रण

संघात्मक संविधान की एक प्रमुख विशेषता उसकी परिवर्तनशीलता भी है I संविधान की परिवर्तनशीलता और अपरिवर्तनशीलता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है I अपरिवर्तनशील संविधान उसे कहते हैं जिसमें संशोधन विशेष प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है जो कठिन होती है I संविधान देश की सर्वोच्च विधि है इसलिए उसकी सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया भी कठिन होनी चाहिए I लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि संविधान में किसी भी दशा में परिवर्तन हो ही नहीं सकता है I संविधान किसी देश की जनता के लिए बनाया जाता है, अत: उसमें समय-समय पर परिवर्तन करना भी आवश्यक होता है I भारतीय संविधान एक लिखित संविधान होते हुए भी काफी परिवर्तनशील संविधान है I संविधान में केवल कुछ ही उपबंध ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है I लेकिन फिर भी संशोधन की विशेष प्रक्रिया विश्व के अन्य संघात्मक संविधान की अपेक्षा अधिक सरल है I 

व्यस्क मताधिकार

लोकतंत्रात्मक सरकार जनता की सरकार है I देश का प्रशासन जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है I इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संविधान प्रत्येक व्यस्क नागरिक को मताधिकार का अधिकार प्रदान करता है I जिसका प्रयोग करके वह अपने प्रतिनिधियों को देश का प्रशासन चलाने के लिए संसद तथा राज्य के विधान-मंडलों में भेजता है I भारत का प्रत्येक व्यस्क नागरिक चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष, अगर 18 वर्ष की आयु का हो चुका है तो उसे निर्वाचन में मतदान करने का अधिकार प्राप्त है I

स्वतंत्र न्यायपालिका

स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है I संघात्मक संविधान में प्राय: दोहरी न्याय पद्धति होती है I संयुक्त राज्य अमेरिका में संघात्मक संविधान के सिद्धांतों को कठोरता से लागू किया जाता है I इसलिए वहां दोहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है – एक संघ की और दूसरी राज्यों की I इसके विपरीत भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी सारे देश के लिए न्याय प्रशासन की एक ही व्यवस्था करता है जिसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय वर्तमान है I संघात्मक संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका का मुख्य कार्य केंद्र तथा राज्यों के बीच विवादों को निपटाना होता है इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा गया है I देश की संसद या राज्यों के विधान-मंडलों द्वारा बनाई गई विधियों को उच्चतम न्यायालय असंवैधानिक घोषित कर सकता है, अगर यह विधियों संविधान के किसी उपबंध का उल्लंघन करती हों I उच्चतम न्यायालय द्वारा किया गया संविधान के उपबंधों का निर्वचन अंतिम होता है I स्वतंत्र न्यायपालिका का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य नागरिकों के मूल अधिकारों की संरक्षा करना होता है I भारतीय संविधान ने इस पुनीत कार्य को पूरा करने का कर्तव्य भारत के उच्चतम न्यायालय को सौंपा है I

एकल नागरिकता

संघात्मक संविधान में साधारणतय: दोहरी नागरिकता होती है – एक संघ की और दूसरे राज्यों की I संयुक्त राज्य अमेरिका में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था है – एक संयुक्त राज्य की और दूसरे उन प्रांतों की जिसमें कोई नागरिक स्थाई रूप से निवास करता है I दोनों प्रकार के नागरिकों के भिन्न-भिन्न अधिकार और कर्तव्य होते हैं I भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है I भारत का प्रत्येक नागरिक भारत का नागरिक है ना की किसी प्रांत का, जिसमें वह रहता है I

पंथ-निरपेक्ष राज्य की स्थापना

भारतीय संविधान भारत में एक पंथ-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है I जिसमें राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है I सरकार किसी विशेष धर्म का पोषण नहीं करती है I राज्य धर्म के मामले में पूरी तरह तटस्थ है I राज्य ना तो किसी धर्म की घोषणा ही करता है और ना किसी धर्म का अनादर बल्कि प्रत्येक धर्म का समान आदर करता है I भारत में प्रत्येक नागरिक को अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने तथा किसी भी ढंग से ईश्वर की पूजा करने की पूरी स्वतंत्रता है I धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार केवल धार्मिक श्रद्धा एवं सिद्धांतों तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसके प्रसार एवं प्रचार करने का अधिकार भी इसमें शामिल है I लेकिन अन्य स्वतंत्रताओं की तरह ही राज्य इस स्वतंत्रता पर भी सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए  युक्तियुक्त निर्बन्धन लगा सकता है I

मूल कर्तव्य

42 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग (4- क) जोड़कर नागरिकों के 10 मूल कर्तव्यों को शामिल किया गया था I संविधान के 86 वें संशोधन के बाद मूल कर्तव्यों की संख्या 11 हो गई है I मूल संविधान में केवल नागरिकों के मूल अधिकारों का ही उल्लेख किया गया था I उनके कर्तव्यों के बारे में कोई स्पष्ट उपबंध नहीं था I लेकिन 42 वां संशोधन करके संविधान में इस कमी को दूर कर दिया गया I अब भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे तथा राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे, स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्शों को हृदय में  संजो कर रखे और उसका पालन करे, भारत की  संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे I

आपात-काल के प्रावधान

भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह संघात्मक होते हुए भी उसमें केंद्रीयकरण की मज़बूत प्रवृत्ति है I देश की संप्रभुता, सुरक्षा, एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए या किसी भी आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए भारतीय संविधान पूरी तरह एक एकात्मक संविधान का रूप धारण कर लेता है I यही नहीं, संविधान में कुछ ऐसे भी उपबंध है जो शांति-काल में भी केंद्र सरकार को अधिक शक्ति प्रदान करते हैं I निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक दोनों व्यवस्थाओं की विशेषताएं मौजूद हैं I

Filed Under: क़ानून / LAW, भारतीय संविधान / Indian Constitution Tagged With: भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं, भारतीय संविधान की विशेषताएं

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