परिचय
जैसा कि हम सब जानते हैं कि भारत के संविधान के भाग-3 में नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं I यह मूल अधिकार नागरिकों और विदेशियों दोनों को प्राप्त हैं I लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि यह मूल अधिकार किसके विरुद्ध उपलब्ध हैं I अधिकतर लोगों को यह तो पता होता है कि संविधान ने हमें मूल अधिकार प्रदान किये हैं लेकिन उन्हें इस बात की जानकारी नहीं होती है कि यह मूल अधिकार हमें किसके विरुद्ध उपलब्ध हैं I
मूल अधिकार किसके विरुद्ध उपलब्ध हैं ?
भारतीय संविधान में भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकार राज्य-शक्ति के विरुद्ध गारंटी किये गये हैं न कि सामान्य व्यक्तियों के अवैध कृत्यों के विरुद्ध I सामान्य व्यक्तियों के अनुचित कृत्यों के विरुद्ध साधारण विधि में अनेक उपचार उपलब्ध हैं I कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उतना असहाय और अशक्त महसूस नहीं करता जितना कि राज्य शक्ति के विरुद्ध I जब यह पता चल जाता है कि मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करते हैं तो प्रशन यह उठता है कि “राज्य “ क्या है और “राज्य” कौन है ? इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 12 में किया गया है I
“राज्य” शब्द की परिभाषा (अनुच्छेद 12)
संविधान के भाग 3 में दिए गये मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं I अनुच्छेद 12 संविधान के भाग – 3 के प्रयोजन के लिए ‘राज्य’ शब्द की परिभाषा करता है I यह परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेद में प्रयुक्त ‘राज्य’ शब्द पर लागू नहीं होती है I अनुच्छेद 12 के अनुसार ‘राज्य’ शब्द के अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हैं –
- भारत सरकार एवं संसद
- राज्य सरकार एवं विधानमंडल
- सभी स्थानीय प्राधिकारी
- अन्य प्राधिकारी
भारत सरकार एवं संसद, राज्य सरकार एवं विधान-मंडल
भारत की सरकार एवं संसद, राज्य सरकार एवं विधानमंडल इन शब्दों से तो यह स्पष्ट है कि भारत की केंद्र सरकार तथा अलग-अलग राज्यों की राज्य सरकार अनुच्छेद 12 के अंतर्गत “राज्य” है। लेकिन अन्य स्थानीय प्राधिकारी तथा अन्य प्राधिकारी इन दो शब्दों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि “राज्य” किसे माना जाए।
लेकिन भारत के उच्चतम न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर उपरोक्त दोनों शब्दावलियों (सभी स्थानीय प्राधिकारी, अन्य प्राधिकारी) का निर्वचन किया है और यह बताया कि किसे “राज्य “ माना जायेगा I
स्थानीय प्राधिकारी
अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त ‘स्थानीय प्राधिकारी’ शब्द का अर्थ है जिन्हें विधि, उप-विधि, आदेश, अधिसूचना आदि के निर्माण करने या जारी करने की शक्ति होती है और साथ ही साथ प्रवर्तित करने की भी शक्ति होती है I यदि किसी अधिकारी को ऐसी शक्ति प्राप्त है तो वो ‘राज्य’ की परिभाषा के अंतर्गत आता है I ‘स्थानीय प्राधिकारी’ के अंतर्गत नगरपालिका, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, ग्रामपंचायत, इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट, माइनिंग सेटेलमेंट बोर्ड आदि संस्थाएं आती हैं I
मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी
के मामले में शहर की नगरपालिका ने थोक विक्रेताओं के ऊपर निश्चित दर से बिक्री कर लगाया I नगर पालिका को एक उपविधि के अंतर्गत ऐसा प्राधिकार प्राप्त था I उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका को अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त “राज्य” शब्द के अंतर्गत राज्य माना और यह निर्णय दिया कि उसका कर लगाने का आदेश अवैध था, क्योंकि वह अनुच्छेद 19(1)(g) में दिए गए मूल अधिकार का अतिक्रमण करता था I
अन्य प्राधिकारी
अनुच्छेद 12 में कुछ प्राधिकारियों का उल्लेख करने के बाद ‘अन्य प्राधिकारी’ पदावली का प्रयोग किया गया है I प्रारम्भ में कई उच्च न्यायालयों ने इसकी बड़ी समुचित व्याख्या की और मत व्यक्त किया कि ‘अन्य प्राधिकारी’ पदावली में उपर वर्णित प्राधिकारियों की तरह के अन्य प्राधिकारी शामिल हैं I
मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांताबाई
के मामले में उक्त निर्वचन के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘अन्य प्राधिकारी’ पदावली में केवल वो प्राधिकारी ही शामिल किये जा सकते हैं जो शासकीय या संप्रभु शक्ति (Sovereign Power) का प्रयोग करते हैं I अत: इस परिभाषा के आधार प्राकृतिक और विधिक व्यक्ति जैसे कि विश्वविद्यालय या कंपनी आदि इस पदावली के अंतर्गत ‘राज्य’ नहीं माने जा सकते I
उज्जमा बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस संकुचित निर्वचन को मानने से इंकार कर दिया और यह निर्णय दिया कि प्राधिकारियों की ऐसी कोई सामान्य श्रेणी नहीं है जो अनुच्छेद 12 में उल्लिखित शब्दावलियों के अंतर्गत आते हों I
इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड राजस्थान बनाम मदनलाल
के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त ‘अन्य प्राधिकारी’ शब्द में वे सभी प्राधिकारी आते हैं जो संविधान या किसी परिनियम द्वारा स्थापित किये जाते हैं और जिन्हें विधि, उप विधि आदि निर्मित करने की शक्ति प्राप्त होती है I यह ज़रूरी नहीं है कि ऐसे प्राधिकारी शासकीय या संप्रभु शक्ति का प्रयोग करते हों I इस निर्वचन के अनुसार ‘अन्य प्राधिकारी’ शब्द के अंतर्गत इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड कोचीन, देवासन बोर्ड, को-ऑपरेटिव सोसाइटी जैसी संस्थाएं शामिल होंगी I जिन्हें को-ऑपरेटिव सोसाइटी एक्ट 1911 के अंतर्गत उप विधियाँ बनाने की शक्ति प्राप्त है I
अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब
के मामले में उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय का अनुसरण करते हुए यह निर्णय दिया कि Societies Registration Act, 1898 के अधीन रजिस्टर्ड एक सोसाइटी अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त “अन्य प्राधिकारी” शब्दावली के अंतर्गत “राज्य” है I सोसाइटी का गठन राज्य द्वारा निर्धारित किया जाता है I उसका समस्त व्यय केंद्र सरकार वहन करती है I सोसाइटी द्वारा निर्मित नियमों को केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति से बनाया जाता है I सोसाइटी सरकार के सभी निर्देशों को मानने के लिए बाध्य है I इसके सदस्यों की नियुक्ति और पदच्युति की शक्ति केंद्र सरकार को प्राप्त है I इस प्रकार केंद्र सरकार का सोसाइटी पर पूरा नियंत्रण है I
अत: आवश्यक कसौटी यह नहीं है कि निगम या निकाय का सृजन कैसे किया जाता है बल्कि आवश्यक कसौटी यह है कि उसकी स्थापना का प्रयोजन क्या है I अगर कोई निकाय राज्य का अभिकर्ता है तो वह अनुच्छेद 12 के अंतर्गत “राज्य” माना जायेगा I
न्यायालयों के निर्णयों के अनुसार ‘अन्य प्राधिकारी’ में निम्नलिखित भी शामिल हैं –
जीवन बीमा निगम, तेल और प्राकृतिक गैस आयोग तथा कारखाना वित्त निगम,सरकारी कंपनी, पंजीकृत सोसाइटी, इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथॉरिटी, भारत पेट्रोलियम निगम, उत्तर प्रदेश को-ऑपरेटिव बैंक, इंडियन कौंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च, स्कूल जो 95% अनुदान सरकार से प्राप्त करते हैं,
न्यायालयों के निर्णयों के अनुसार ‘अन्य प्राधिकारी’ में निम्नलिखित शामिल नहीं हैं –
एन.सी.ई.आर.टी (NCERT), गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक विद्यालय संविधान के अनुच्छेद 30(1) के अधीन उनकी स्वायत्ता के कारण,
क्या न्यायपालिका ‘राज्य’ शब्द के अंतर्गत आती है ?
अमेरिका में यह सिद्धांत बड़ी अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है कि मूल अधिकार न्यायपालिका के कार्यों के विरुद्ध भी प्राप्त हैं I यदि न्यायालयों के किसी आदेश के फलस्वरूप किसी व्यक्ति के मूल अधिकार का उल्लंघन होता हैं तो ऐसा आदेश अवैध घोषित किया जा सकता है I (वर्जीनिया बनाम राइब्स)
नरेश बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र
के मामले में यह प्रश्न पहली बार उच्चतम न्यायालय के सामने आया था I न्यायालय ने इस विषय पर कोई निश्चयात्मक मत व्यक्त नहीं किया उसने केवल यह कहा कि अगर यह मान भी लिया जाए कि न्यायपालिका ‘राज्य’ है तो भी उसके आदेशों के विरुद्ध अनुच्छेद 32 के अंतर्गत रिट जारी नहीं किये जा सकते हैं क्यूँकि ऐसे आदेशों से नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है I
एम.एच.सिरवई का मत
यह है कि न्यायपालिका ‘राज्य’ शब्द की परिभाषा के अंतर्गत आती है और एक न्यायाधीश, न्यायाधीश के रूप में उच्चतम न्यायालय में रिट अधिकारिता के अधीन कार्य करता है, उसके आदेशों के विरुद्ध रिट जारी किये जा सकते हैं I सरकार के अन्य अंगों की तरह न्यायपालिका की शक्ति भी संविधान के आदेशात्मक उपबंधों द्वारा परिसीमित है और इन्हें नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करने की शक्ति प्रदान नहीं की गई हैं I
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