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इस्लाम से पहले की स्थिति
इस्लाम के आने से पहले विवाह के वक़्त स्त्री का पिता मेहर की रक़म प्राप्त करता था I हालाँकि उस वक़्त स्त्री के गुज़र-बसर करने के लिए पति द्वारा उसे कुछ रक़म देने की प्रथा थी I हालाँकि उचित क़ानून नहीं होने के कारण इस नियम का पालन नहीं होता था I लेकिन इस्लाम ने पत्नी को मेहर का हक़दार बना दिया I उस वक़्त एक प्रथा ‘शिगार विवाह’ के नाम से चलन में थी जिसमें एक पुरुष अपनी बेटी या बहन को अपने विवाह के बदले में दूसरे व्यक्ति को दे देता था तथा उसकी बहन या पुत्री से वह खुद विवाह कर लेता था I कुरान में लिखा है कि “अगर तुम अपनी पत्नियों से अलग होते हो तो उन्हें सौहार्द से विदा करो, जो चीज़ें तुमने उन्हें कभी दी हों, उन्हें फिर उनसे लेने की तुम्हें अनुमति नहीं है I”
मेहर की परिभाषा
मुल्ला के अनुसार, “मेहर एक ऐसी धनराशि या संपत्ति है, जिसको विवाह के प्रतिकर के रूप में प्राप्त करने के लिए पत्नी हक़दार है I”
तैय्यबजी के अनुसार, “मेहर वह धनराशि है जो विवाह के बाद पति द्वारा पत्नी को पक्षकारों के क़रार या कानून द्वारा देय होती है I वह या तो तात्कालिक (मुअज्जल) या स्थगित (मुवज्जल) होता है I”
विल्सन के अनुसार, “मेहर पत्नी द्वारा शरीर के समर्पण का प्रतिकर (बदला) है I”
भारत में मुस्लिम विधिवेत्ताओं के अनुसार, मेहर सोना अथवा चाँदी के वज़न में होना चाहिए ताकि मुद्रा के उतार-चढ़ाव में स्त्री के अधिकारों की सुरक्षा की जा सके I
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मेहर की प्रकृति
अब्दुल कादिर बनाम सलीमा के मामले न्यायाधीश महमूद ने कहा कि “मेहर मुस्लिम विधि में वह धनराशि या संपत्ति होती है जिसे पति विवाह के प्रतिकर के रूप में पत्नी को देने का वादा करता है और अगर विवाह के समय इसे नियत न भी किया जाए या इसका ज़िक्र न किया जाए तो भी क़ानून पत्नी को मेहर का हक़ प्रदान करता है I
मेहर की प्रकृति के सम्बन्ध में अब्दुर्रहीम का मत न्यायमूर्ति महमूद के मत से भिन्न है I उनके अनुसार, “मेहर वैवाहिक संविदा का प्रतिफल नहीं है, बल्कि वह पति पर मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित एक कर्तव्य है जिसे पत्नी के सम्मान के प्रतीक के रूप में पति पूरा करने के लिए बाध्य है I”
मेहर का महत्त्व
फतवा-ए-काज़ी खां के अनुसार, “मेहर विवाह का एक ऐसा आवश्यक अंग है कि अगर विवाह के वक़्त संविदा में उसका ज़िक्र न हो, तो भी विधि स्वत: संविदा के आधार उसकी पूर्वधारणा कर लेगी I” अगर विवाह के पहले स्त्री अपने मेहर का त्याग कर दे या मेहर के बिना ही विवाह करने के लिए राज़ी हो जाए, तो ऐसा करार या सहमती अमान्य होगी I मेहर का इतना महत्त्व इसलिए है कि वह पति द्वारा तलाक़ के अधिकार के मनमाने प्रयोग के विरुद्ध पत्नी को सुरक्षा प्रदान करता है I
मेहर का उद्देश्य
मेहर के उद्देश्य हैं –
- मेहर का उद्देश्य पत्नी के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में पति पर एक दायित्व आरोपित करना I
- पति द्वारा तलाक के मनमाने प्रयोग पर एक अवरोध रखना है I
मेहर की विषय-वस्तु
कोई भी वस्तु जिसका कुछ मूल्य हो, जो माल की परिभाषा में आती हो और अस्तित्व में हो, मेहर की विषय-वस्तु हो सकती है I लेकिन कुछ वस्तुएं जो मेहर की विषय-वस्तु नहीं हो सकती हैं जैसे –
- ऐसी वस्तुएं जो मेहर निश्चित करते वक़्त अस्तित्व में न हों, जैसे – अगले वर्ष की फसल
- वस्तुएं जो मुसलमानों के लिए निषिद्ध (हराम) हों, जैसे- शराब, सूअर का मांस
- पति द्वारा सेवा सुन्नी विधि में मेहर की विषय-वस्तु नहीं हो सकती है लेकिन अगर पति एक निश्चित अवधि तक सेवा करने का वचन देता है, तो शिया विधि में यह मेहर की विषय-वस्तु हो सकती है
- अगर मेहर की संपत्ति के अंतर्गत कुछ संपत्ति अवैध है तो ऐसे मामले में केवल वैध संपत्ति ही मेहर की विषय-वस्तु मानी जाएगी
मेहर का वर्गीकरण
राशि के आधार पर मेहर 2 वर्गों में बाँटा जा सकता है –
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निश्चित मेहर (मेहर-इ-मुसम्मा) (Specified Dower)
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मुअज्जल (तात्कालिक) मेहर (Prompt Dower)
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मुवज्जल (स्थगित) मेहर (Deferred Dower)
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उचित मेहर (मेहर-इ-मिस्ल) (Proper Dower)
निश्चित मेहर
अगर विवाह संविदा में मेहर की धनराशि का उल्लेख हो तो ऐसा मेहर निश्चित मेहर होता है I अगर विवाह के पक्षकार स्वस्थ्यचित और व्यस्क हों तो वे मेहर की धनराशि विवाह के वक़्त खुद तय कर सकते हैं और अव्यस्क्त की तरफ से उसके अभिभावक मेहर की धनराशि तय कर सकते हैं I अभिभावक द्वारा निर्धारित की गई धनराशि अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी होगी I हनफी विधि में मेहर की रक़म 10 दिरहम से कम और मालिकी विधि में 3 दिरहम से कम तय नहीं की जा सकती है I शिया विधि में मेहर की कोई न्यूनतम सीमा नहीं है I यह निम्नलिखित 2 प्रकार का होता है I
- मुअज्जल मेहर – विवाह हो जाने पर मुअज्जल मेहर तत्काल देय हो जाता है और मांग पर तत्काल अदायगी ज़रूरी है I यह विवाह के पहले या बाद में कभी भी वसूल किया जा सकता है I अगर विवाह की पूर्णावस्था प्राप्त नहीं हुई है और मुअज्जल मेहर का भुगतान न होने के कारण पत्नी पति के साथ नहीं रहती है तो पति द्वारा लाया गया दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन (Restitution of Conjugal Rights) का वाद ख़ारिज कर दिया जायेगा I मुअज्जल मेहर विवाह की पूर्णावस्था प्राप्त हो जाने पर मुवज्ज्ल नहीं हो जाता है I पूर्णावस्था प्राप्त कर लेने पर भी पत्नी को इस मेहर की वसूली का वाद दायर करने का पूरा अधिकार है I अंतर केवल इतना हो जाता है कि पूर्णावस्था प्राप्त कर लेने पर न्यायालय इस शर्त पर पति को डिक्री प्रदान करेगा कि पहले वह मेहर का भुगतान करे I क्यूंकि मुअज्जल मेहर मांग पर देय होता है, इसलिए अवधि की गणना मांग और इंकार के समय से शुरू हो जाती है I यह अवधि 3 साल की होती है I अगर विवाह अवस्था में पत्नी कोई मांग नहीं करती है तो केवल मृत्यु या तलाक़ की तारीख से अवधि की गणना आरम्भ होती है I
- मुवज्जल मेहर – यह मृत्यु या तलाक़ द्वारा विवाह के समाप्त हो जाने पर अथवा क़रार द्वारा निर्धारित किसी निश्चित घटना के घटित होने पर देय होता है I पत्नी इससे पहले इसकी मांग नहीं कर सकती लेकिन अगर पति चाहे तो ऐसा मेहर उसे अदा कर सकता है I मुवज्जल मेहर में पत्नी का हित निहित होता है I उसकी मृत्यु से भी वह टल नहीं सकता और उसके मर जाने पर उसके उत्तराधिकारी उसका दावा कर सकते हैं I
मुअज्जल और मुवज्जल मेहर के विषय में पूर्वधारणा
कठिनाई उस वक़्त उत्पन्न होती है जब विवाह का दस्तावेज़ (कबीननामा) इस विषय में मौन होता है कि कितना भाग मुअज्जल होगा और कितना भाग मुवज्जल ?
सुन्नी विधि में मेहर के विषय में कबीननामा और रिवाज के मौन होने पर आधा भाग मुअज्जल और आधा भाग मुव्ज्जल माना जाता है I शिया विधि में मेहर की पूरी राशि मुअज्जल मानी जाती है I
इलाहाबाद और बम्बई उच्च न्यायालय के मत से दोनों का अनुपात पत्नी की स्थिति, स्थानीय रिवाज, मेहर की कुल राशि और पति की हैसियत के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए I
उचित (रिवाजी) मेहर
अगर मेहर की राशि निश्चित न हो तो पत्नी उचित मेहर की अधिकारिणी होती है, चाहे विवाह की संविदा इस शर्त पर ही की गई हो कि पत्नी किसी मेहर दावा नहीं करेगी I उचित मेहर का निर्धारण निम्नलिखित आधारों पर किया जाना चाहिए –
- पत्नी की निजी अर्हताएं – उम्र, सौन्दर्य, समृद्धि, समझदारी और सदाचार
- उसके पिता के खान-दान की सामाजिक स्थिति
- उसके पिता पक्ष की सम्बन्धी स्त्रियों को दिया गया मेहर
- उसके पति की आर्थिक स्थिति
- तत्कालीन परिस्थितियां
यह नियम शिया लोगों में भी प्रचलित है, जिसमें मेहर की अधिकतम सीमा 500 दिरहम रखी गयी है I लेकिन सुन्नी विधि में कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं है I
मेहर में वृद्धि या कमी
पति विवाह के बाद किसी भी समय मेहर में वृद्धि कर सकता है I उसी प्रकार पत्नी, जिसने यौवनावस्था प्राप्त कर ली है, अपनी स्वतंत्र सहमती से मेहर की पूरी धनराशि को छोड़ सकती है या कुछ कम कर सकती है I पत्नी के द्वारा मेहर में दी गई छूट को हिबा-ए-मेहर कहते हैं I मेहर की छूट लिखित होनी चाहिए I
मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी के अधिकार
समागम से इंकार
अगर मुअज्जल मेहर का भुगतान नहीं किया गया है और विवाह पूर्णावस्था को नहीं पहुँचा है तो पत्नी को समागम से इंकार करने का अधिकार है I लेकिन अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है तो पत्नी समागम से इंकार नहीं कर सकती है बशर्ते कि पूर्णावस्था प्राप्त होने के वक़्त वह अवयस्क या विकृतचित्त न रही हो I अगर पत्नी अवयस्क है या विकृतचित्त है तो उसके संरक्षक को यह अधिकार है कि वह मेहर के भुगतान होने तक उसे पति के घर जाने से रोके रखे I
ऋण के रूप में मेहर का अधिकार
पति के जीवन-काल में पत्नी पति के विरुद्ध वाद लाकर मेहर प्राप्त कर सकती है I अगर पति की मृत्यु हो गई है और मेहर का भुगतान नहीं हुआ है तो विधवा पति के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद लाकर मेहर प्राप्त कर सकती है I पति के उत्तरदायी व्यक्तिगत रूप से मेहर के भुगतान के लिए उत्तरदायी नहीं है वे केवल उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति की सीमा तक ही उत्तरदायी हैं I
मेहर के एवज में पति की सम्पदा पर काबिज़ रहने का का अधिकार
अगर मेहर का भुगतान नहीं हुआ है तो विधवा पति की संपत्ति पर तब तक काबिज़ रह सकती है जब तक कि उसे मेहर का भुगतान नहीं हो जाता है I यह कब्ज़ा उसे उस संपत्ति में स्वामित्व का अधिकार नहीं देता इसलिए वह उस संपत्ति को किसी अन्य को अंतरित नहीं कर सकती है I
मेहर प्राप्त करने के लिए वाद लाने की समय-सीमा
मेहर की वसूली के लिए भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत निर्धारित अवधि के अंदर ही वाद प्रस्तुत हो जाना चाहिए वरना वाद खारिज हो जायेगा I
- मेहर अगर मुअज्जल है तो पत्नी द्वारा इसकी मांग करने की तिथि से 3 वर्षों के अंदर ही वाद दाखिल हो जाना चाहिए I
- विवाह विच्छेद हो जाने पर मुअज्जल या मुवज्जल मेहर तुरंत देय हो जाते हैं I इस मामले में वाद की परिसीमा अवधि विवाह-विच्छेद की तिथि से 3 वर्ष तक है I
- विवाह-विच्छेद या पति की मृत्यु के मामले में, अगर पत्नी उस स्थिति में नहीं है, तो 3 वर्ष की अवधि तब से प्रारम्भ मानी जाएगी जब पत्नी को तलाक़ या मृत्यु की सूचना मिलती है I
- किसी विधवा द्वारा मेहर के बदले में पति की संपत्ति पर कब्ज़ा बनाये रखने की दशा में वाद की 3 वर्ष की परिसीमा अवधि पति की मृत्यु के दिन से ही मानी जाएगी I
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