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इस्लाम से पहले की प्रथा
लगभग सभी प्राचीन देशों में तलाक़ किसी न किसी रूप में प्रचलित था I इस्लाम के आने से पहले पति को तलाक़ के असीमित अधिकार प्राप्त थे I
इस्लामी सुधार
अमीर अली के अनुसार, पैगम्बर मोहम्मद साहब ने काफी सुधार किये उनमें से एक यह है कि उन्होंने पति की तलाक़ देने की शक्ति को सीमित कर दिया और उन्होंने स्त्रियों को उचित आधार पर अलग हो जाने का अधिकार प्रदान किया I पैगम्बर मोहम्मद साहब ने कहा कि “अगर कोई स्त्री अपने विवाह से दुखी है तो ऐसे विवाह विच्छेद हो जाना चाहिए और यह ईश्वर की नज़र में अनुमोदित बातों में सबसे बुरा है I”
तलाक़ का मनमाना प्रयोग
मुस्लिम विधि के लगभग सभी विद्वान तलाक़ को उचित मानते हैं लेकिन उसके मनमाने या बिना कारण के प्रयोग को वे नैतिकता और धर्म की दृष्टी से बुरा समझते हैं I पैगम्बर मोहम्मद साहब का कथन है कि “जो मनमाने ढंग से अपनी पत्नी को अस्वीकार करता है वे ख़ुदा के यहाँ पाप का पात्र होता है I” मोहम्मद साहब ने अपने अंतिम वक़्त में बिना पंच या न्यायाधीश के हस्तक्षेप के मनमाने तलाक के प्रयोग को लगभग वर्जित ही कर दिया था I कुरान कहता है कि “अगर उनके मध्य वैवाहिक सम्बन्ध के टूटने की आशंका हो तो एक निर्णायक, पति की तरफ से और एक पत्नी की तरफ से नियुक्त करो I अगर वे अपने सम्बन्ध सुधारना चाहेंगे तो अल्लाह उन्हें एक-मत कर देगा I”
विवाह-विच्छेद के प्रकार
- ईश्वरीय कृत्य द्वारा (पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर)
- पक्षकारों के कृत्य द्वारा
- पति द्वारा – तलाक़, इला, जिहार
- पत्नी के द्वारा – तलाक़ ए तफ्वीज़ (प्रत्यायोजित तलाक़)
- पारस्परिक सहमती द्वारा – खुला और मुबारत
- न्यायिक विवाह-विच्छेद (मुस्लिम विधि, 1939 के अंतर्गत)
- लियन और
- फ्स्ख
तलाक़
तलाक़ शब्द का मतलब होता है ‘निराकरण करना’ या ‘नामंज़ूर करना’ I लेकिन मुस्लिम विधि में इसका अर्थ ‘वैवाहिक बंधन से मुक्त’ करना है I
तलाक की सामर्थ्य (Capacity for Talaq)
सुन्नी विधि – कोई भी मुसलमान जो व्यस्क और स्वस्थ्य-चित्त हो, अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है I
शिया विधि – एक शिया मुसलमान जो, व्यस्क, स्वस्थ-चित्त, स्वतंत्र इच्छा वाला, कार्य की प्रकृति को समझने वाला है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक़ दे सकता है I
मौखिक तलाक़
पति बिना किसी तलाकनामे के सिर्फ शब्दों को बोलकर भी तलाक़ दे सकता है और शब्दों का कोई विशेष रूप ज़रूरी नहीं है केवल शब्द स्पष्ट होने चाहिए जिससे तलाक़ दिया जाना अच्छी तरह स्पष्ट हो जाए I
लिखित तलाक़
तलाकनामा केवल मौखिक तलाक दिए जाने का लेख हो सकता है I तलाकनामा पत्नी या उसके संरक्षक या दूसरे साक्षियों की मौजूदगी में लिखा जा सकता है I पत्नी का मौजूद होना ज़रूरी नहीं है I तलाकनामे द्वारा दिया गया तलाक दस्तावेज़ की तारीख से प्रभावी होता है पत्नी द्वारा उसकी प्राप्ति की तारीख से नहीं I
सुन्नी विधि – सुन्नी विधि में नामित स्त्री को तलाक देने की हस्ताक्षरित घोषणा ही काफी होती है, चाहे तलाक का आशय हो या न हो और गवाह भी ज़रूरी नहीं होते I
शिया विधि – शिया विधि में तलाक़ केवल मौखिक ही हो सकता है जो कि 2 गवाहों की मौजूदगी में होना चाहिए I यह जब लिखित हो सकता है जब पति मौखिक तलाक देने में असमर्थ हो I
पत्नी की अनुपस्थिति में तलाक़
वैसे तो यह ज़रूरी है कि तलाक के शब्द पत्नी की मौजूदगी में ही बोले जाएँ या उसको संबोधित हों I लेकिन पत्नी की गैर-मौजूदगी उसे शून्य या निष्प्रभावी नहीं बना देती है I लेकिन तब यह ज़रूरी हो जाता है कि तलाक के शब्द उसका नाम लेकर बोले जाएँ या शब्द स्पष्ट रूप से उसकी तरफ निर्देशित हों I
विवशता, नशे या मज़ाक की हालत में तलाक़
विवशता में तलाक़
सुन्नी विधि में विवशता में दिया गया तलाक भी मान्य और प्रभावी होता है, जैसे – पति का इरादा न होते हुए भी पिता को खुश करने के लिए दिया गया तलाक I शिया विधि में ऐसा तलाक अमान्य है I
नशे की हालत में तलाक़ – सुन्नी विधि में नशे की हालत में दिया गया तलाक भी मान्य होता है बशर्ते कि नशा उसकी इच्छा के विरुद्ध न दिया गया हो I
मज़ाक में तलाक़ – सुन्नी विधि में मज़ाक या खेल में दिया गया तलाक भी मान्य होता है I लेकिन शिया विधि में यह अमान्य होता है I
तलाक़ के विभिन्न तरीके
निम्नलिखित तरीकों में से किसी भी तरीके से तलाक़ दिया जा सकता है –
- तलाक़-उल-सुन्नत
- तलाक़-ए-अहसन
- तलाक़-ए- हसन
- तलाक़-उल-बिद्दत
तलाक़-उल-सुन्नत
यह तलाक़ पैगम्बर मोहम्मद साहब की परंपरा के अनुसार कार्यान्वित किया जाता है I इसके 2 उप-भाग हैं –
तलाक़-ए-अहसन
इस अरबी शब्द का मतलब है – सबसे अच्छा I इससे यह स्पष्ट होता है कि यह सबसे अच्छा तलाक़ है I इसकी शर्तें निम्नलिखित है –
- पति द्वारा एक ही वाक्य में तलाक़ के शब्दों को बोलना ज़रूरी है,
- पत्नी का तुहर (पाक अवस्था) में होना चाहिए,
- इसे इद्दत की अवधि में संभोग से दूर रहना ज़रूरी है I
अगर विवाह का समागम नहीं हुआ है तो तलाक-ए-अहसन देने के लिए पत्नी का तुहर की हालत में होना ज़रूरी नहीं है मतलब मासिक धर्म में भी तलाक दिया जा सकता है I जब पत्नी को मासिक धर्म न होता हो (वृद्धावस्था या अन्य किसी कारण से) या पति-पत्नी एक दूसरे से दूर हों, तो भी तलाक देने के लिए पत्नी का तुहर की हालत में होना ज़रूरी नहीं है I तलाक-ए-अहसन इद्दत की अवधि तक खंडनीय (Revocable) होता है I
कुरान में लिखा है कि “और तलाक़शुदा स्त्री को 3 मासिक धर्म की अवधि तक प्रतीक्षा करनी चाहिए I”
“और तुम्हारी उन स्त्रियों को जिन पर तुम्हें संदेह है कि उन्हें मासिक धर्म नहीं होता है तब उनका निर्धारित समय 3 माह है I
तलाक़-ए- हसन
इस अरबी शब्द का मतलब है -अच्छा I यह तलाक-ए-अहसन से थोड़ा कम अच्छा है I इसकी शर्तें निम्नलिखित हैं –
- तलाक के शब्दों को 3 बार (अलग-अलग तुहर की हालत में) बोला जाना ज़रूरी है,
- अगर पत्नी को मासिक धर्म होता है तो पहली तलाक़ तुहर की हालत में फिर दूसरी तलाक दूसरे तुहर में और फिर तीसरे तुहर में देना ज़रूरी है I
- अगर पत्नी को मासिक धर्म नहीं होता है तो प्रत्येक तलाक 30 दिन के अंतराल पर दिया जाना ज़रूरी है I
- तुहर की इन तीनों अवधि में सम्भोग बिलकुल नहीं होना चाहिए I
ऐसा तलाक तीसरी बार बोलने पर तुरंत अखंडनीय हो जाता है I यह तलाक कुरान की निम्न आयत पर आधारित है -“तलाक की घोषणा 2 बार की जा सकती है तब तक उन्हें अच्छे साथी की तरह रखो और अगर पति उसे तीसरी बार तलाक देता है तो पत्नी को उसके साथ रहना विधि-पूर्ण नहीं है जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह न कर ले I”
तलाक़-उल-बिद्दत
इसे तलाक-उल- बैन के नाम से भी जाना जाता है I यह तलाक का बुरा रूप है I शाफई और हनफी विधि इसे मान्यता देती है लेकिन इसे पाप समझती हैं I शिया और मालिकी इसे मान्यता नहीं देते हैं I तलाक की यह रीति निम्नलिखित बातों की अपेक्षा करती है –
- एक ही तुहर के दौरान बोले गये तलाक के शब्द चाहे वे एक ही वाक्य में हो या अलग-अलग वाक्य में, जैसे – में तुम्हें 3 बार तलाक देता हूँ या मैं तुम्हें तलाक देता हूँ, मैं तुम्हें तलाक देता हूँ, मैं तुम्हें तलाक देता हूँ I
- एक ही तुहर में दिया गया तलाक जिससे अखंडनीय विवाह विच्छेद का आशय साफ़ प्रकट होता हो I
तलाक़ कब अखंडनीय हो जाते हैं ?
- तलाक-उल-सुन्नत
- तलाक-ए-अहसन – इद्दत की अवधि समाप्त होने पर
- तलाक-ए-हसन – उच्चारण करते ही तुरंत अखंडनीय हो जाता है I इद्दत की अवधि समाप्त हो जाना ज़रूरी नहीं है I
- तलाक-उल-बिद्दत – यह तलाक इद्दत से पहले ही, उच्चारण होते ही अखंडनीय हो जाता है I अगर तलाक लिखित रूप में दिया गया है तो तलाकनामा लिखे जाने के तुरंत बाद प्रभावी हो जाता है I
इला
अगर कोई पति, जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है और स्वस्थ चित्त हो, अल्लाह की क़सम खाकर कहे कि वह 4 महीने या उससे अधिक समय तक या किसी अनिश्चित समय तक अपनी पत्नी से सम्भोग नहीं करेगा, तो उसे ‘इला’ करना कहा जाता है I जैसे – मैं अल्लाह की क़सम खाकर कहता हूँ कि में तुम्हारे पास नहीं जाऊँगा I यह मान्य इला है I अगर वह इस अवधि में संभोग नहीं करता है तो तलाक हो जाता है I
इला के आवश्यक तत्व
- पति को स्वस्थ्य चित्त और व्यस्क होना चाहिए
- वह अल्लाह की कसम खाए या प्रतिज्ञा करे
- यह कि वह चार माह या उससे अधिक समय तक पत्नी से सम्भोग नहीं करेगा
- पति द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना ज़रूरी है
इला का रद्द किया जाना
- अपनी प्रतिज्ञा का समय खत्म होने से पहले पति फिर से सम्भोग शुरू कर दे
- या इस अवधि के भीतर मौखिक रूप से इला का खंडन कर दिया जाए
शिया और शाफई विधि में पत्नी दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन के लिए न्यायालय जा सकती है और ऐसे में पति को 2 विकल्प प्राप्त होते हैं –
- उसे तलाक दे दे
- या उससे संभोग शुरू कर दे
दोनों से इंकार करने पर न्यायालय को विवाह विच्छेद की शक्ति होती है I लेकिन सुन्नी विधि में न्यायिक कार्यवाही ज़रूरी नहीं है I भारत में इला विधि से न ही तलाक दिया जाता है और न ही यहाँ इसका कोई महत्त्व है I
जिहार
अगर पति (स्वस्थ्य चित्त और व्यस्क है) अपनी पत्नी की तुलना अपनी मां या निषिद्ध संबंधों के भीतर किसी भी स्त्री से करे और जब तक वह प्रायश्चित न कर ले, पत्नी को उससे सम्भोग करने का अधिकार है I प्रायश्चित न करने पर पत्नी विवाह विच्छेद की अधिकारी हो जाती है I लेकिन यहाँ आशय बहुत महत्वपूर्ण है अगर तुलना में उसका आशय सम्मान प्रकट करना था तो प्रायश्चित ज़रूरी नहीं है I भारत में इसका महत्त्व अब समाप्त हो गया है I
जिहार के आवश्यक तत्व
- पति स्वस्थ्य चित्त और व्यस्क हो
- वह अपनी पत्नी की तुलना अपनी मां या निषिद्ध संबंधों के भीतर किसी से करे
जिहार के विधिक प्रभाव
- सम्भोग अवैध हो जाता है
- प्रायश्चित करना आवश्यक
- प्रायश्चित न करने पर न्यायिक प्रथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है
तलाक के परिणाम
तलाक किसी भी तरीके से दिया गया हो उसके पूर्ण होने पर निम्नलिखित परिणाम होते हैं –
- दंपत्ति दूसरा विवाह करने के हक़दार हो जाते है
- अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है तो स्त्री अपनी इद्दत की अवधि समाप्त होने पर दूसरे पुरुष से विवाह कर सकती है
- अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त नहीं हुआ है तो स्त्री तुरंत विवाह कर सकती है
- अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है और तलाक की तारीख़ पर उस स्त्री को मिलाकर पति की 4 पत्नियाँ रही हों तो तलाक़शुदा पत्नी की इद्दत पूरी हो जाने पर ही दूसरी पत्नी से विवाह कर सकता है
- मेहर तुरंत देय हो जाता है
- अगर विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया है तो पत्नी तत्काल पूरा मेहर पाने की हक़दार है चाहे मेहर मुअज्जल हो या मुवज्जल
- अगर विवाह पूर्णावस्था को नहीं पहुंचा है और विवाह संविदा में मेहर की राशि निश्चित थी तो आधे मेहर की हक़दार होती है और अगर निश्चित नहीं थी तो 3 कपड़े पाने की हक़दार होती है
- जहाँ पति द्वारा धर्म त्याग के कारण तलाक हुआ हो और विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो गया हो तो पत्नी पूरे मेहर की हक़दार है I
तलाक़-इ-ताफवीज़ (प्रत्यायोजित तलाक़)
ताफ्वीज का मतलब है शक्ति का प्रत्यायोजन I तलाक का यह सिद्धांत मुस्लिम विधि का एक महत्वपूर्ण विषय है I कोई पति या तो खुद अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है या तलाक देने की शक्ति का प्रत्यायोजन किसी दूसरे पक्ष को या अपनी पत्नी कर सकता है I शक्ति का ऐसा प्रत्यायोजन ताफ्वीज कहलाता है I जैसे – विवाह के पहले या बाद में हुई कोई भी संविदा जिसके द्वारा पति ने पत्नी को बिना उसकी सहमती से दूसरा विवाह करने पर अपने आपको उससे अलग करने का अधिकार दिया हो, वैध होती है I लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी है कि पत्नी को दिया गया विकल्प पूर्ण और असीमित न हो और शर्तें युक्तियुक्त हों और इस्लाम और लोक नीति के खिलाफ न हों I
यह रोचक है कि इस तलाक द्वारा पत्नी पति को तलाक नहीं देती बल्कि पति की ओर से खुद को तलाक देती है I लेकिन पति अपनी शक्ति प्रत्यायोजित करके खुद तलाक देने के अधिकार से वंचित नहीं हो जाता है I
खुला
इस्लाम धर्म के आने से पहले एक पत्नी को किसी भी आधार पर तलाक की मांग का अधिकार नहीं था I कुरान द्वारा पहली बार पत्नी को तलाक प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ था I कुरान में भी कहा गया है कि अगर पत्नी कुछ धन पति को देकर अपना पीछा छुड़ा ले तो इसमें पति या पत्नी को पाप नहीं है I फतवा-ए-आलमगीरी में भी कहा गया है कि जब विवाह के पक्षकार राज़ी हों और यह आशंका हो कि उनका आपस में रहना संभव नहीं है तो पत्नी प्रतिफल के रूप में कुछ संपत्ति पति को वापस करके खुद को उसके बंधन से मुक्त कर सकती है I
खुला का शाब्दिक अर्थ है – हटाना या उतारना, खोलना I विधि में इसका अर्थ है – पति द्वारा पत्नी पर अपने अधिकार और प्रभुत्व का परित्याग I
खुला के आवश्यक तत्व
- पत्नी की ओर से प्रस्ताव आवश्यक
- छुटकारा पाने के लिए प्रतिकर के प्रस्ताव की स्वीकृति आवश्यक
- प्रसताव पति द्वारा स्वीकार किया जाना आवश्यक I
खुला के लिए क्षमता
- व्यस्क
- स्वस्थ्य चित्त
- स्वतंत्र इच्छा वाला
- परिणाम की जानकारी रखने वाला
- सुन्नी विधि में शुरू के दो तत्व आवश्यक हैं I
मुबारत (पारस्परिक छुटकारा)
मुबारत का शाब्दिक अर्थ है – पारस्परिक छुटकारा I मुबारत में प्रस्ताव चाहे पत्नी की तरफ से हो या पति की तरफ से, उसकी स्वीकृति अखंडनीय तलाक कर देती है और पत्नी को इद्दत का पालन करना आवश्यक होता है I मुबरत में अरुचि दोनों की तरफ से होती है और दोनों अलग होना चाहते हैं I
लिएन (व्यभिचार का झूठा आरोप)
जब कोई पति अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाये और आरोप झूठा हो, वहां पत्नी को अधिकार हो जाता है कि वह दावा करके विवाह विच्छेद करा ले I
लिएन के आवश्यक तत्व
- व्यस्क और स्वस्थ्य चित्त पति अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाए या बच्चों का पिता होने से इनकार करे I
- ऐसा आरोप झूठा हो I
- विवाह विच्छेद के लिए कानूनी कार्यवाही आवश्यक
- नियमित वाद दायर होना आवश्यक केवल आवेदन-पत्र काफी नहीं I
पति अपने द्वारा लगाये गये आरोप को वापस भी ले सकता है –
- आरोप का वापस लेना सद्भावपूर्ण होना चाहिए न कि वाद को निष्फल बनाने के लिए
- उसका बिना शर्त के होना ज़रूरी है
- उसका वाद की सुनवाई के समय या पहले होने आवश्यक है I
न्यायिक विवाह विच्छेद (मुस्लिम विवाह विच्छेद, 1939 द्वारा)
इस अधिनियम के पारित होने से पहले किसी मुस्लिम पत्नी को तलाक की डिक्री प्रदान करने के लिए केवल 2 आधारों पर मान्यता प्राप्त थी –
- पति की नपुंसकता
- व्यभिचार का झूठा आरोप
लेकिन इस अधिनियम के बाद, जो सभी मुसलमानों पर चाहे वे किसी भी स्कूल से संबंधित हों, लागू होता है, की धारा 2 के अंतर्गत 9 आधारों पर तलाक लेने का उपबंध किया गया है I
- पति की अनुपस्थिति – पति अगर 4 साल से लापता हो तो पत्नी तलाक की डिक्री पाने की हक़दार होगी I ऐसी डिक्री, डिक्री की तिथि से 6 महीने बाद प्रभावी होगी I इतने समय में अगर पति आ जाए और कोर्ट को संतुष्ट कर दे कि वह दाम्पत्य कर्तव्य का पालन कर रहा है तो डिक्री अपास्त करनी पड़ेगी I
- पत्नी का भरण-पोषण करने में असफलता – अगर पति 2 साल तक भरण-पोषण करने में असफल रहे I पति अपनी निर्धनता, अस्वस्थ्यता, बेरोज़गारी, कारावास या अन्य कोई कारण के आधार पर प्रतिवाद नहीं कर सकता है I
- पति का कारावास – अगर पति को 7 साल या उससे अधिक का कारावास मिला हो I लेकिन दंडादेश अंतिम होना चाहिए I वरना डिक्री पारित नहीं की जा सकती है I
- दाम्पत्य दायित्वों के पालन में असफलता – अगर बिना उचित कारण की पति ने 3 साल तक दायित्वों का पालन नहीं किया है तो पत्नी तलाक की डिक्री पाने की हक़दार है I इस अधिनियम में “पति के दाम्पत्य दायित्वों” की परिभाषा नहीं दी गयी है I इस प्रयोजन के लिए कोर्ट ऐसे दाम्पत्य दायित्वों का अवलोकन करेगा जिनको इस अधिनियम की धारा 2 की किसी उप खंड में शामिल नहीं किया गया है I
- पति की नपुंसकता – अगर पति विवाह के समय नपुंसक था और अब भी है तो पति तलाक की डिक्री की हक़दार है I लेकिन कोर्ट ऐसी डिक्री पारित करने से पहले पति को 1 साल का वक़्त देगा I अगर उस अवधि में पति यह साबित करने में सफल रहता है कि अब वह नपुंसक नहीं है तो डिक्री पारित नहीं की जाएगी I पति नपुंसक जब कहा जायेगा जब वह सम्भोग करने में असमर्थ हो I नपुंसकता 2 तरह की होती है 1- शारीरिक ( यह 2 तरह की होती है 1- पूर्ण और 2- संबंधित ) 2- मानसिक (ऐसी नपुंसकता में शारीरिक क्षमता होते हुए भी सम्भोग करने की इच्छा नहीं होती है ) I डिक्री पारित करने के लिए पति का पूर्ण नपुंसक होना ज़रूरी नहीं है I
- पति का पागलपन – अधिनियम की धारा 2(6) यह कहती है कि अगर पति 2 साल से पागल रहा हो या कुष्ठ रोग या उग्र रतिज रोग से पीड़ित हो I अंतिम दोनों रोग का 2 साल से होना ज़रूरी नहीं है I
- पत्नी द्वारा विवाह की अस्वीकृति – अधिनियम की धारा 2(7) के अंतर्गत तलाक की डिक्री प्राप्त की जा सकती है I जब पत्नी यह सिद्ध कर दे कि-
- उसका विवाह उसके पिता या संरक्षक द्वारा कराया गया था I
- 15 साल की उम्र हो जाने के बाद लेकिन 18 साल की उम्र होने से पहले उसने विवाह को अस्वीकार कर दिया था I
- विवाह का सम्भोग नहीं हुआ था I
- पति की निर्दयता – अधिनियम की धारा 2(8) के अंतर्गत पत्नी तलाक की डिक्री प्राप्त कर सकती है I अगर पति निर्दयता का व्यवहार करता हो, जैसे –
- पति उसे पीटता हो या उससे क्रूरता का व्यवहार करता हो जिससे कि उसका जीवन दुःखमय हो गया हो I भले ही दुर्व्यवहार शारीरिक न हो I
- पत्नी को अनैतिक जीवन बिताने के लिए बाध्य करता हो I
- उसको अपने धर्म पालन से रोकता हो I
- अगर उसकी एक से ज्यादा पत्नियाँ हैं तो कुरान के अनुसार उसके साथ समानता का व्यवहार करता हो I
- मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विच्छेद के मान्य आधार – इस खंड में इला, जिहार, खुला, मुबारत, तफवीज आते हैं I
धर्मत्याग का विवाह पर प्रभाव
यह विषय मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 की धारा 4 के अंतर्गत आता है Iइस अधिनियम के लागू होने से पहले किसी भी पक्षकार द्वारा इस्लाम धर्म का त्याग स्वत: विवाह विच्छेद कर देता था I लेकिन अब अगर पति इस्लाम धर्म का त्याग करता है तो विवाह स्वत: विच्छेद हो जाएगा अगर पत्नी इस्लाम धर्म का त्याग कर दे तो स्वत: विवाह विच्छेद नहीं माना जायेगा I इस सम्बन्ध में 2 नियम हैं –
- अधिनियम की धारा 4 उस स्त्री पर लागू होती है जो मूलत: मुस्लिम है और इस्लाम धर्म का त्याग कर देती है I ऐसी स्त्री का धर्म त्याग के आधार स्वत: विवाह विच्छेद नहीं होगा I लेकिन ऐसी स्त्री इस अधिनियम की धारा 2 में दिए गये 9 आधारों में से किसी आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकती है I
- धारा 4 उन स्त्रियों पर लागू नहीं होगी जिन्होंने किसी अन्य धर्म का त्याग कर इस्लाम धर्म को अपनाया हो और फिर अपना पूर्व धर्म ग्रहण कर लिया हो या जो स्त्रियाँ मूलत: मुस्लिम न हों I
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